पर्यावरण, लोकभाषा और संस्कृति

 पर्यावरण, लोकभाषा और संस्कृति




दस कुओं के बराबर एक बावड़ी होती है, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र है और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है-

"दश कूप समा वापी, दशवापी समोहद्रः।
दशहृद समः पुत्रो, दशपुत्रो समो द्रुमः।"


आज विश्व पर्यावरण दिवस है। इस अवसर पर भारतीयता की मूल प्रकृति को दर्शाने वाली लोकभाषा एवं संस्कृति से बृहत्तर समाज की दूरी को लेकर मेरे मन में कुछ चिंतन उभरते हैं। आज़ादी के अमृत वर्ष पर क्या यह इस देश का दुर्भाग्य नहीं है कि इस देश की राष्ट्रीय प्रकृति के अनुरूप इसकी अपनी कोई भाषा सरकारें या व्यवस्था अभी तक स्वीकार नही कर पायी है।  साथ ही इस देश की व्यवस्था और समाज ने भी अपनी लोकभाषाओं को तिरस्कृत कर। त्याज्य दिया है। जिस कारण हम आज भी भाषाई एवं वैचारिक तौर पर ग़ुलाम की भाँति है।  पर्यावरण संरक्षण हेतु भी हमारे विचार उधार से शासित होते है। जबकि हमारी संस्कृति में भूमि, जल, आकाश की तमाम महिमाएँ हैं।

फिर हमारे सामाजिक एवं सांस्कृतिक पर्यावरण की निर्मिति में गिरावट क्यों? यह प्रश्न निश्चय ही विचारणीय है।  

प्रसिद्ध पर्यावरणविद् स्वर्गीय अनुपम मिश्र कहते हैं ‘किसी समाज का पर्यावरण पहले बिगड़ना शुरू होता है या उसकी भाषा- हम इसे समझकर संभल सकने के दौर से अभी तो आगे बढ़ गए हैं।  हम 'विकसित' हो गए हैं। भाषा यानी केवल जीभ नहीं। भाषा यानी मन और माथा भी।  एक का नहीं, एक बड़े समुदाय का मन और माथा जो अपने आसपास के और दूर के भी संसार को देखने-परखने-बरतने का संस्कार अपने में सहज संजो लेता है। ये संस्कार बहुत कुछ उस समाज की मिट्टी, पानी, हवा में अंकुरित होते हैं, पलते-बढ़ते हैं और यदि उनमें से कुछ मुरझाते भी हैं तो उनकी सूखी पत्तियां वहीं गिरती हैं, उसी मिट्टी में खाद बनाती हैं। इस खाद यानी असफलता की ठोकरों के अनुभव से भी समाज नया कुछ सीखता है।‘

इस पूरे उद्धरण को यदि समझें तो भाषा, संस्कृति और पर्यावरण के अंतरसम्बन्धों को सहजता से समझा जा सकता है।  भाषा या बोली मात्र बोलने का जरिया नहीं होते, उनमें एक संस्कृति छुपी होती है।  भाषा के बदलने से एक पूरा समाज प्रभावित होता है।  क्योंकि यह हमारे दिमाग को बदलता है।  औपनिवेशिक शासन व्यवस्था और तदन्तर गढ़े विकास ने हमारी प्रकृति और पर्यावरण के साथ ही हमारी सामाजिकता को भी नष्ट किया है।  इस व्यवस्था ने जहर की भांति धीरे-धीरे पूरे समाज एवं संस्कृति को बदलकर रख दिया है।  जिसमें एक बड़ी आबादी को हमारी संस्कृति का सब कुछ पुराना, पिछड़ा और दक़ियानूसी लगता है।  इस सोच ने पर्यावरण और प्रकृति का बहुत बड़ा नुकसान किया है।  अंधाधुंध विकास ने हमारे पूरे प्राकृतिक चक्र को बिगाड़ कर रख दिया है।  जल, जंगल और जमीन के मूल स्रोत के निवासियों को हमने अंग्रेजों से मिले उधार की सीख के आधार पर पिछड़ा एवं आदिवासी मान लिया।  जबकि भारत इन्हीं पिछड़े और सम्पन्न इलाकों में मिले प्राकृतिक संसाधनों से एक समृद्ध देश माना गया।  

भारतीय संस्कृति में प्रारम्भ से ही प्रकृति और पर्यावरण को विशेष महत्त्व दिया गया है। हमारी संस्कृति में पर्यावरण के विविध स्वरूपों को “देवताओं” के समकक्ष मानकर उनकी पूजन-अर्चन करने की परंपरा रही है। “माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या” अर्थात पृथ्वी हमारी माता है एवं हम सभी देशवासी इस धरा की संतान हैं। इसी प्रकार पर्यावरण के अनेक अन्य घटकों यथा पीपल, तुलसी, वट के वृक्षों को पवित्र मानकर पूजा जाता है। अग्नि, जल एवं वायु को भी देवता मानकर उन्हें पूजने की परंपरा रही है। समुद्र, नदी को भी पूजन करने योग्य माना गया है। गंगा, यमुना, कावेरी, गोदावरी, सिंधु एवं सरस्वती आदि नदियों को पवित्र मानकर पूजा जाता है। हमारे यहाँ तो पशु एवं पक्षियों का भी आदर करना सिखाया गया है।

इन सभी के बावजूद औपनिवेशिक शासन व्यवस्था तथा अपनी भाषा एवं संस्कृति को निम्नतर देखने की प्रवृत्ति ने हमारी प्रकृति और पर्यावरण का बहुत बड़ा अहित किया है। हमने अंधाधुंध विकास को ही सब कुछ मान लिया, जिसका परिणाम हमारे सामने है। देश के तमाम गांवों के निवासी आज भी पर्यावरण की सरकारी परिभाषा को नहीं समझते है।  पर उन्हें प्रकृति से प्रेम करना आता है क्योंकि यह उनकी संस्कृति और परंपरा  का हिस्सा है। जबकि सरकारी शब्दावली में एक हद तक पर्यावरण को बस विकास से जोड़कर देखने की परंपरा रही।  सरकार ने पर्यावरण रक्षा के नाम पर तमाम योजनाएँ चलाई पर उनमें देशीपन का अभाव रहा।  यहीं पर हमारी संस्कृति और भाषा का महत्व स्थापित होता है।  

अपनी भाषा, संस्कृति और ज्ञान से कटकर हमने अपने जल के स्रोतों कुएं, तालाब को मृतपाय बना डाला।  देश के गांवों में स्थित वनों को विकास और आबादी के कारण कृषि क्षेत्र में बदल दिया गया ।  हमारे पुरखे प्रकृति और पर्यावरण के महत्व को समझते थे।  आज भी राजस्थान के रेगिस्तानी क्षेत्रों में ‘ओरण’(अरण्य से बना शब्द) की व्यवस्था है।  इस प्रकार के ओरण गांवों के वन, मंदिर देवी के नाम पर छोड़े जाते हैं। इन ओरणों के रक्षा का दायित्व ग्रामीणों के ऊपर ही होता है और इनको अकाल के समय में ही खोला जाता है। स्वर्गीय अनुपम मिश्र अपने आलेख में कहते है ‘इन वनों की रखवाली इनका श्रद्धा और विश्वास करता रहा है।‘   हज़ार-बारह सौ वर्ष पुराने ओरण भी यहां मिल जाएंगे। पर इस प्रकार की समृद्ध परंपरा से सरकारें अपरिचित है।  क्योंकि हमारी सरकारों का एक बड़ा वर्ग अपनी भाषा और संस्कृति से कटा हुआ है।  हमने अपनी ग्रामीण व्यवस्था एवं परंपरा को पिछड़ा मान लिया।  यही कारण है  कि  हमने अपनी कृषि की प्रत्येक समृद्ध परंपरा को बिना सोचे-समझे पिछड़ा मान लिया।  

परिणामस्वरूप सरकारों द्वारा स्थापित अधिकांश योजनाएँ समाज की मूलभूत आवश्यकताओं से कटी हुई, क्योंकि इन्हें तैयार करने वाले शिक्षा व्यवस्था के कारण ग्रामीण परम्पराओं से अपरिचित रहे।  जन से कटे रहने के कारण अधिकांश योजनाएँ असफल सिद्ध हुई।  इसका मूल कारण रहा इन योजनाओं को तैयार करने वाले अधिकांश नीति-निर्माता किंडर गार्डेन शिक्षा पद्धति में पले-बढ़े अथवा व्यवस्था इनकी पोषक रही।   पर्यावरण आधारित सरकार की अधिकांश योजनाओं के नाम को देख लें तो ऐसा प्रतीत होगा इन योजनाओं को तैयार तो भारत में किया गया है पर इनका सोच एवं क्रियान्वयन पश्चिम आधारित रहा।  अत: ये अधिकांश समाज से कटी रही। हमने नदियों के जल को  पानी अथवा विद्युत स्रोत मानकर उनका दोहन किया।  हमने नदियों को प्रदूषण का केंद्र बना डाला, वह भी तब जब इस देश में राजा भगीरथ की कथा जनश्रुतियों में मौजूद है।  पर यह केवल श्रुतियों तक सीमित रह गया, जिसका नुकसान हम सब देख रहे हैं।

अब समय आ गया है कि हम अपनी प्रकृति और पर्यावरण के महत्व को समझें।  इस महत्व के प्रसार में हमारी लोक भाषाओं का बहुत बड़ा योगदान है।  हम सभी अपनी मिट्टी, भाषा, संस्कृति से अभिन्न रूप से जुड़े हुए है। इस देश की मूल प्रकृति की रक्षा के लिए जनभाषाओं को अपनाया जाना बेहद आवश्यक है।  इससे जहां हम अपने समाज, संस्कृति, परंपरा की रक्षा कर सकते है वहीं देश के लोकतांत्रिक पर्यावरण को भी मजबूती दे सकते हैं।  लोकभाषाएँ इस देश की जीवतंता के लिए आवश्यक है क्योंकि वे गुण, भाव से समावेशी, सर्वग्राही है जो प्रकृति एवं भारतीयता का मूल तत्व है।

आईए! पर्यावरण दिवस के अवसर पर इस देश के निवासियों के सशक्तिकरण के लिए, राष्ट्रीय कार्य-व्यवहार में राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी एवं देशी भाषाओं को दृढ़तापूर्वक अपनाने का संकल्प लें। ताकि लोक के माध्यम से पर्यावरण के प्रति सुषुप्त पड़ चुकी चेतना को जागृत किया जा सके। जो भारतीय भाव धारा पृथ्वी को मातृभूमि और अपने आपको उसका पुत्र समझने की चिंतन को व्याख्यायित करती है। वह यदि भौतिकवाद की अंधी दौड़ में सब कुछ भूल-सी गई है तो यह समाज के लिए चिंतनीय के साथ ही भावी पीढ़ी के लिए भी एक  भयावह संकेत है। जबकि हमारी भाव धारा तो एक छोटे से तृण के प्रति भी उदार रही है। दूब को पूजने वाला समाज क्यों एक वट वृक्ष के सूख जाने, कट जाने अथवा नया रोपित करने के प्रति उदार नहीं होता। इस पर्यावरण दिवस पर भारतीय भाव धारा की उसी चेतना के प्रति जागृत होने, करने की आवश्यकता है। अथर्ववेद (१२/१/१२) में कहा गया है- 

माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या: 

अर्थात् ‘यह भूमि माता है, मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ। ‘

पर्यावरण दिवस का यही मूल संकल्प हो तो सब सार्थक व समृद्ध हो जाए। 

©डॉ. साकेत सहाय

साहित्यकार

लेखक संप्रति पंजाब नैशनल बैंक में मुख्य प्रबंधक(राजभाषा) व पटना अंचल में पदस्थापित है। 

संपर्क- hindisewi@gmail.com



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