हिंदी प्रयोग के नाम पर राजनीति
- कभी भाषा को पंथ से जोड़कर कुतर्क प्रस्तुत करेंगे।
- कभी हिंदी-उर्दू का विवाद,
- कभी हिंदी की बोलियों के नाम पर राजनीतिक रोटी सेंकना
- तो कभी हिंदी और भारतीय भाषाओं को आपस में लड़ा कर अंग्रेजी को आगे करना।
जबकि भाषाएं तो राष्ट्रीय संस्कृति से जुड़ी होती हैं, राष्ट्रीय संस्कृति की परिचायक होती हैं। अब हिंदी-उर्दू को ही लें। उर्दू और हिंदी दोनों हमारी अपनी भाषाएं है। मात्र लिपि का अंतर है। इतिहास पढ़ लीजिये, जान-बूझकर षड्यंत्र के तहत उर्दू को फारसी लिपि में लिखा जाने लगा। यदि देश पर तुर्क-मुगल-अंग्रेजों द्वारा दासता नहीं थोपी जाती तो क्या यहाँ अंग्रेजी भाषा या फारसी लिपि वाली उर्दू चलती? इस देश की सांस्कृतिक एकता के लिये जरूरी है कि इस देश की परंपरा, भाषा, लिपि, संस्कृति का सम्मान हों, उसे बढ़ावा देने का यत्न हो।
अतः दही विवाद पर तमिलनाडु सरकार को यह समझना चाहिए यह देश समृद्ध सांस्कृतिक विरासत, परंपरा का देश रहा है। इस देश में सदियों से एक भाषा को राष्ट्रीय-सांस्कृतिक रूप से अपनाने की परंपरा रही है। भारत एक संघीय गणराज्य है तो यह सभी राज्यों का राष्ट्रीय धर्म है कि वे संघ की राजभाषा हिंदी का सम्मान करें, न कि निहित स्वार्थ में देश का नुक़सान करें और राष्ट्रीय भावना को क्षति न पहुँचाए।
देश अब ब्रिटिश, मुगल या अरबों का उपनिवेश नहीं रहा। जो आप उनकी भाषा, संस्कृति, परंपरा को हर जगह अपनायेंगे। यह सब हीनता बोध का परिचायक है। हम सभी का यह राष्ट्रीय धर्म है कि हम अपनी भाषाओं का सम्मान करें, उसे सीखें, समझें, अपनाएँ, अपनी राष्ट्रभाषा, राजभाषा का अपमान करना राष्ट्रीय शर्म का विषय होना चाहिए।
साथ ही यह जरूरी है कि हम सभी अपने-अपने स्तर पर भाषा के विमर्श को सकारात्मक तरीके से उठायें। उदाहरण के लिए, जब तक सभी कंपनियां अपने उत्पादों पर राजभाषा और प्रदेश विशेष की भाषा का प्रयोग नहीं करें, उन्हें न खरीदें । आजादी के अमृत काल में संविधान के रक्षार्थ हम सभी इतना तो कर ही सकते हैं।
केवल सरकारों के भरोसे रहने से हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं का भला कभी नहीं होगा। सरकार और समाज दोनों को हिंदी एवं भारतीय भाषाओं के प्रयोग-प्रसार हेतु उल्लेखनीय प्रयास करना होगा। सरकार इस दिशा में लगातार प्रयासरत हैं । कार्यालयों में हिंदी के प्रयोग-प्रसार में उनके प्रयासों से कितना लाभ हुआ इसकी समीक्षा अलग से हो सकती है। पर यह भी तथ्य है कि हिंदी एवं भारतीय भाषाओं के समक्ष बाधाएं भी कम नहीं, आज स्वाधीनता प्राप्ति के इतने वर्षों बाद भी शासन-प्रशासन, न्यायपालिका सहित विपक्ष भी हिंदी और भारतीय भाषाओं के पक्ष में कभी एकमत से खड़ा नहीं दिखता।
इस प्रकार के प्रकरणों पर राजनीतिक के साथ-साथ सामाजिक रुप से भी यह कहा जा सकता है कि हिंदी एवं भारतीय भाषाओं के प्रति हमारी सोच बेहद सीमित है । ज्यादातर इसे सिर्फ बोलने का जरिया भर मानते है। इसे हम अपनी सांस्कृतिक व सामाजिक दोनों ही स्तरों पर गिरावट मान सकते है। क्योंकि भाषा के सबसे महत्वपूर्ण पक्ष संस्कृति, संस्कार, भाव, परंपरा के जनक के रूप में देखने में हम में से ज़्यादातर असमर्थ है। जिसकी शुरुआत ज़्यादा तीव्र गति से उदारीकरण के बाद प्रारंभ हुईं है। अब अधिकांश महानगरीय सोच से प्रभावित पीढ़ी के लिए यह केवल बोली के रुप में उपस्थित भर रह गई है। सरकारें सब कुछ नहीं कर सकती। जरूरी है कि हम अपने घरों से इसकी शुरुआत करें । हिंदी के सर्व समावेशी रूप तथा देवनागरी लिपि एवं अन्य भारतीय भाषाओं के समन्वय से इसकी शुरुआत हो। हमारी भाषाओं में सब कुछ है। पर हम सभी को इस हेतु पहल करनी होगी। पहल करना सबसे अधिक जरूरी है। आज कोई भी परीक्षा हो हर जगह अंग्रेजी हावी है, जिससे हिंदी एवं देशी भाषाएँ वाले कमजोर हीनता बोध से प्रभावित नज़र आते है। संस्थानो में राजभाषा की स्थिति को देख लें । हम खुद समझ जाएंगें ।
अब समय आ गया है हिंदी एवं देशी भाषाओं की मजबूती के लिए हम सभी को गहरी नींद से जागना होगा, लड़ना होगा । भाषाएं केवल नीतियों से नही उभरती, भाषाएं स्वस्थ मानसिकता एवं मजबूत सोच से आगे बढती है।
ऐसे में हम सभी का यह कर्तव्य बनता है कि सरकार के सकारात्मक प्रयासों को हर स्तर पर अपना अधिकतम समर्थन दें और उनके प्रयास में अपना भी योगदान दें। सोचियेगा कभी, क्या हमारे महान नेताओं ने स्वभाषा के लिए इन्हीं दिनों की ख़ातिर अपना बलिदान दिया था।
©डॉ. साकेत सहाय
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