Sunday, June 20, 2021

पिता

आजकल बिहार में लगातार बारिश हो रही है। रुकने का नाम नहीं, पुराने दिनों की तरह। जैसे बचपन में कहते थे सोमवार से शुरू हुआ है तो सोमवार को ही ख़त्म होगा। कल जब बैंक गया तो हमारे वरिष्ठ सहकर्मी श्री शराफ़त हुसैन बोले- स्कूल की तरह ‘रेनी डे’ कर दिया जाए, तो कितना अच्छा होता😊 मैंने कहा- अब कहां वे मासूमियत भरे दिन! फिर मैंने कहां पहले सर पर पिता का हाथ होता था, तो सब अच्छा लगता था, सब दिन वसंत की माफ़िक़। पर अब कहां वे दिन। 

सच में पिता बनकर ही लोग पिता को महसूस करते है। जीवन आपको पिता की भांति कर्मवान बनने को प्रेरित करता है ताकि आप अपने कर्तव्य-पथ पर रंग भर सके। अपनों के जीवन में ख़ुशियाँ ला सके। वास्तव में व्यक्ति के जीवन में पिता की सीख और आशीर्वाद का शब्दों से परे महत्व है।  पिता घर की आधारशिला होते है,  नींव होते है। 🙏💐

इस अवसर पर अपनी स्वरचित कविता की याद आई, जो पिता को समर्पित है। 


पिता


यूँ तो दो अक्षरों का मेल

दोनों ही व्यंजन

शायद इसीलिए

भौतिकता के प्रतीक माने जाते

पर इनका त्याग अजर-अमर-अविनाशी


पर पिता होना इतना आसान भी तो नहीं

ईश्वरीय कृपा

पिता यानी पथ-प्रदर्शक, संरक्षक

जिंदगी की पगडंडियों पर संभालने वाले

जिनके बिना जिंदगी बंजर-सी, सूखी-सी

यूँ तो वह दूर से पत्थर, अबोला,

पर पास में ममता, स्नेह  की विशाल बरगद –सी छाया


पिता

जिसे हमने दूसरों की नजर से देखा,

कभी अपनी माँ की नजरों से

कभी अपनी स्वार्थ की नजरों से


पर 

पिता तो सबसे ऊपर है

क्योंकि वह नश्वर है।

(स्वरचित)

©डाॅ. साकेत सहाय


इसे मेरे ब्लॉग पर भी पढ़ सकते है 


Saturday, June 19, 2021

मिल्खा सिंह- जो दिल पर लेते थे, दिल से जीते थे।


 कभी दूरदर्शन पर उनको देश के लिए स्वाभिमान के साथ नंगे पैर दौड़ते देखना एक अलग-सा अहसास देता था।  इस अलग से अहसास से उपजे खेलों के प्रति रोमांस ने लाखों भारतीयों को खेल की दुनिया में जाने को प्रेरित किया। जिसमें आनंद और रोमांच से बढ़कर देश के लिए मान-वृद्धि का उद्देश्य था। मिल्खा सिंह पर प्रत्येक भारतीय को गर्व है। उन्होंने खेल की दुनिया को रुपयों के लिए नहीं अपनाया था बल्कि देश के स्वाभिमान से जोड़ा था। 


कोरोना विषाणु से संक्रमित होने के करीब एक महीने बाद 91 वर्षीय इस महान धावक के निधन से देश ने खेल संस्कृति के महान योद्धा को खो दिया। वर्ष 1958 के राष्ट्रमंडल खेलों के विजेता और 1960 के ओलिंपियन ने चंडीगढ़ के पीजीआई अस्पताल में अंतिम सांस ली। मिल्खा सिंह बीते 20 मई को कोरोना विषाणु की चपेट में आए थे। पहले उनके पारिवारिक रसोइए को कोरोना हुआ था, जिसके बाद मिल्खा और उनकी पत्नी निर्मल मिल्खा सिंह भी कोरोना पॉजिटिव हो गए थे, जिनका इसी माह देहांत हुआ। 


चार बार के एशियाई खेलों के स्वर्ण पदक विजेता मिल्खा सिंह ने 1958 के राष्ट्रमंडल खेलों में भी रजत पदक हासिल किया था। उनका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन वर्ष 1960 के रोम ओलंपिक में था जिसमें उन्होंने 400 मीटर फाइनल में चौथा स्थान प्राप्त किया था। उन्होंने 1956 और 1964 ओलंपिक में भी भारत का प्रतिनिधित्व किया था। उन्हें 1959 में पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया था ।  मिल्खा सिंह और उनके बेटे गोल्फ़र जीव मिल्खा सिंह देश के इकलौते पिता-पुत्र की ऐसी जोड़ी है, जिन्हें खेल उपलब्धियों के लिए पद्मश्री से नवाज़ा गया हैं। 


अविभाजित भारत में जन्में उड़न सिख के नाम से मशहूर मिल्खा सिंह को दुनिया के हर कोने से प्यार और समर्थन मिला। मिल्खा की प्रतिभा और रफ्तार से प्रभावित होकर उन्हें ‘फ्लाईंग सिख’ का खिताव तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति फील्ड मार्शल अयूब खान द्वारा दिया गया था। 


आज जब बाज़ार और मीडिया ने खेल को उद्योग का दर्जा दे दिया है। ऐसे समय में मिल्खा सिंह हमारे लिए प्रेरणा स्रोत बने रहेंगे जब उन्होंने मूलभूत सुविधाओं के अभाव में भी भारत को पूरी दुनिया में सम्मान दिलाया। पर अब के खिलाड़ी खेलों को मात्र मनोरंजन और पैसा का स्रोत मान रहे हैं। तभी तो टेलीविजन पर कोई हानिकारक कोको-कोला, तो कोई पेप्सी, तो कोई गुटखा का विज्ञापन कर रहा है। हमें इस पर विचार करना होगा। क्या इस प्रकार के विज्ञापनों से खेल संस्कृति बनेगी। 


मिल्खा सिंह केवल एक खिलाड़ी बनकर नही रहे। उन्होंने खेलों को देश के स्वाभिमान से जोड़ा। यहीं उनका सबसे बड़ा योगदान हैं। यह अलग बात है कि वे युवा वर्ग में सचिन, विराट या धोनी की तरह चर्चित नहीं हुए और न सचिन की तरह सत्ता कृपा से भारत-रत्न बने पर इतना ज़रूर है कि वे करोड़ों भारतीयों के दिलों में भारत के रत्न बनकर अवश्य गुंजायमान हुए। 

उनके प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि यहीं होगी कि खेत-खलिहान की समृद्ध परम्परा के इस देश धावक परम्परा को सींचित किया जाए। ताकि देश का युवक स्वस्थ, समृद्ध बने और वैज्ञानिक प्रशिक्षण के माध्यम से पदक विजेता बनकर भी उभरे। साथ ही सभी खेल एक समान है। खेलों को ग्लैमर का पर्याय न माने, बल्कि खेल को समृद्ध सामाजिक परंपरा के अंग के रूप में प्रसारित करें। 


सुविख्यात धावक, 'पद्मश्री' से सम्मानित 'फ्लाइंग सिख' श्री मिल्खा सिंह जी का निधन खेल जगत के लिए अपूरणीय क्षति है। एक महान खिलाड़ी के रूप में उन्हें हमेशा याद किया जाएगा।

ॐ शांति! 🙏🇮🇳


जय हिंद!  मिल्खा सिंह जी🙏


Tuesday, June 8, 2021

ज़ेहाद- मुंशी प्रेमचंद

बहुत पुरानी बात है। हिंदुओं का एक काफ़िला अपने धर्म की रक्षा के लिए पश्चिमोत्तर के पर्वत-प्रदेश से भागा चला आ रहा था।

मुद्दतों से उस प्रांत में हिंदू और मुसलमान साथ-साथ रहते चले आये थे। धार्मिक द्वेष का नाम न था। पठानों के जिरगे हमेशा लड़ते रहते थे। उनकी तलवारों पर कभी जंग न लगने पाता था। बात-बात पर उनके दल संगठित हो जाते थे। शासन की कोई व्यवस्था न थी। हर एक जिरगे और कबीले की व्यवस्था अलग थी। आपस के झगड़ों को निपटाने का भी तलवार के सिवा और कोई साधन न था। जान का बदला जान था, खून का बदला खून; इस नियम में कोई अपवाद न था। यही उनका धर्म था, यही ईमान; मगर उस भीषण रक्तपात में भी हिंदू परिवार शांति से जीवन व्यतीत करते थे। 

पर एक महीने से देश की हालत बदल गयी है। एक मुल्ला ने न जाने कहाँ से आ कर अनपढ़ धर्मशून्य पठानों में धर्म का भाव जागृत कर दिया है। उसकी वाणी में कोई ऐसी मोहिनी है कि बूढ़े, जवान, स्त्री-पुरुष खिंचे चले आते हैं।
वह शेरों की तरह गरज कर कहता है-खुदा ने तुम्हें इसलिए पैदा किया है कि दुनिया को इस्लाम की रोशनी से रोशन कर दो, दुनिया से कुफ्र का निशान मिटा दो। एक काफिर के दिल को इस्लाम के उजाले से रोशनी कर देने का सवाब सारी उम्र के रोजे, नमाज और जकात से कहीं ज्यादा है। जन्नत की हूरें तुम्हारी बलाएँ लेंगी और फरिश्ते तुम्हारे कदमों की खाक माथे पर मलेंगे, खुदा तुम्हारी पेशानी पर बोसे देगा।

और सारी जनता यह आवाज सुन कर मजहब के नारों से मतवाली हो जाती है। उसी धार्मिक उत्तेजना ने कुफ्र और इस्लाम का भेद उत्पन्न कर दिया है। प्रत्येक पठान जन्नत का सुख भोगने के लिए अधीर हो उठा है। उन्हीं हिंदुओं पर जो सदियों से शांति के साथ रहते थे, हमले होने लगे हैं। कहीं उनके मंदिर ढाये जाते हैं, कहीं उनके देवताओं को गालियाँ दी जाती हैं। कहीं उन्हें जबरदस्ती इस्लाम की दीक्षा दी जाती है। हिंदू संख्या में कम हैं, असंगठित हैं; बिखरे हुए हैं, इस नयी परिस्थिति के लिए बिलकुल तैयार नहीं। उनके हाथ-पाँव फूले हुए हैं, कितने ही तो अपनी जमा-जथा छोड़ कर भाग खड़े हुए हैं, कुछ इस आँधी के शांत हो जाने का अवसर देख रहे हैं। यह काफिला भी उन्हीं भागनेवालों में था। 

दोपहर का समय था। आसमान से आग बरस रही थी। पहाड़ों से ज्वाला-सी निकल रही थी। वृक्ष का कहीं नाम न था। ये लोग राज-पथ से हटे हुए, पेचीदा औघट रास्तों से चले आ रहे थे। पग-पग पर पकड़ लिये जाने का खटका लगा हुआ था। यहाँ तक कि भूख, प्यास और ताप से विकल होकर अंत को लोग एक उभरी हुई शिला की छाँह में विश्राम करने लगे। सहसा कुछ दूर पर एक कुआँ नजर आया। वहीं डेरे डाल दिये। भय लगा हुआ था कि जिहादियों का कोई दल पीछे से न आ रहा हो। 

दो युवकों ने बंदूक भर कर कंधे पर रखीं और चारों तरफ गश्त करने लगे। बूढ़े कम्बल बिछा कर कमर सीधी करने लगे। स्त्रियाँ बालकों को गोद से उतार कर माथे का पसीना पोंछने और बिखरे हुए केशों को सँभालने लगीं। सभी के चेहरे मुरझाये हुए थे। सभी चिंता और भय से त्रास्त हो रहे थे, यहाँ तक कि बच्चे भी जोर से न रोते थे।

दोनों युवकों में एक लम्बा, गठीला रूपवान है। उसकी आँखों से अभिमान की रेखाएँ-सी निकल रही हैं, मानो वह अपने सामने किसी की हकीकत नहीं समझता, मानो उसकी एक-एक गत पर आकाश के देवता जयघोष कर रहे हैं। दूसरा कद का दुबला-पतला, रूपहीन-सा आदमी है, जिसके चेहरे से दीनता झलक रही है, मानो उसके लिए संसार में कोई आशा नहीं, मानो वह दीपक की भाँति रो-रो कर जीवन व्यतीत करने ही के लिए बनाया गया है। उसका नाम धर्मदास है; इसका ख़ज़ाँचन्द।

धर्मदास ने बंदूक को जमीन पर टिका कर एक चट्टान पर बैठते हुए कहा-तुमने अपने लिए क्या सोचा? कोई लाख-सवा लाख की सम्पत्ति रही होगी तुम्हारी ?

ख़ज़ाँचंद ने उदासीन भाव से उत्तर दिया-लाख-सवा लाख की तो नहीं,
हाँ, पचास-साठ हजार तो नकद ही थे।
‘तो अब क्या करोगे ?’
‘जो कुछ सिर पर आयेगा, झेलूँगा ! रावलपिंडी में दो-चार सम्बन्धी हैं, शायद कुछ मदद करें।
तुमने क्या सोचा है ?’
‘मुझे क्या गम ! अपने दोनों हाथ अपने साथ हैं। वहाँ इन्हीं का सहारा था, आगे भी इन्हीं का सहारा है।’
‘आज और कुशल से बीत जाये तो फिर कोई भय नहीं।’
‘मैं तो मना रहा हूँ कि एकाध शिकार मिल जाय। एक दरजन भी आ जायँ तो भून कर रख दूँ।’

इतने में चट्टानों के नीचे से एक युवती हाथ में लोटा-डोर लिये निकली और सामने कुएँ की ओर चली। प्रभात की सुनहरी, मधुर, अरुणिमा मूर्तिमान हो गयी थी।

धर्मदास पानी लेकर लौट ही रहा था कि उसे पश्चिम की ओर से कई आदमी घोड़ों पर सवार आते दिखायी दिये। जरा और समीप आने पर मालूम हुआ कि कुल पाँच आदमी हैं। उनकी बंदूक की नलियाँ धूप में साफ चमक रही थीं। धर्मदास पानी लिये हुए दौड़ा कि कहीं रास्ते ही में सवार उसे न पकड़ लें लेकिन कंधे पर बंदूक और एक हाथ में लोटा-डोर लिये वह बहुत तेज न दौड़ सकता था। फासला दो सौ गज से कम न था। रास्ते में पत्थरों के ढेर टूटे-फूटे पड़े हुए थे। भय होता था कि कहीं ठोकर न लग जाय, कहीं पैर न फिसल जायँ। इधर सवार प्रतिक्षण समीप होते जाते थे। अरबी घोड़ों से उसका मुकाबला ही क्या, उस पर मंजिलों का धावा हुआ। मुश्किल से पचास कदम गया होगा कि सवार उसके सिर पर आ पहुँचे और तुरंत उसे घेर लिया। धर्मदास बड़ा साहसी था; पर मृत्यु को सामने खड़ी देख कर उसकी आँखों में अँधेरा छा गया, उसके हाथ से बंदूक छूट कर गिर पड़ी। पाँचों उसी के गाँव के महसूदी पठान थे। एक पठान ने कहा-उड़ा दो सिर मरदूद का। दग़ाबाज़ काफिर।

दूसरा-नहीं नहीं, ठहरो, अगर यह इस वक्त भी इस्लाम कबूल कर ले, तो हम इसे मुआफ कर सकते हैं। क्यों धर्मदास, तुम्हें इस दग़ा की क्या सजा दी जाय ? हमने तुम्हें रात-भर का वक्त फैसला करने के लिए दिया था। मगर तुम इसी वक्त जहन्नुम पहुँचा दिये जाओ; लेकिन हम तुम्हें फिर मौका देते हैं। यह आखिरी मौका है। अगर तुमने अब भी इस्लाम न कबूल किया, तो तुम्हें दिन की रोशनी देखनी नसीब न होगी।

धर्मदास ने हिचकिचाते हुए कहा-जिस बात को अक्ल नहीं मानती, उसे कैसे …
पहले सवार ने आवेश में आकर कहा-मजहब को अक्ल से कोई वास्ता नहीं।
तीसरा-कुफ्र है ! कुफ्र है !

पहला- उड़ा दो सिर मरदूद का, धुआँ इस पार।
दूसरा-ठहरो-ठहरो, मार डालना मुश्किल नहीं, जिला लेना मुश्किल है। तुम्हारे और साथी कहाँ हैं धर्मदास ?
धर्मदास-सब मेरे साथ ही हैं।

दूसरा-कलामे शरीफ़ की कसम; अगर तुम सब खुदा और उनके रसूल पर ईमान लाओ, तो कोई तुम्हें तेज निगाहों से देख भी न सकेगा।
धर्मदास-आप लोग सोचने के लिए और कुछ मौका न देंगे।
इस पर चारों सवार चिल्ला उठे-नहीं, नहीं, हम तुम्हें न जाने देंगे, यह आखिरी मौका है।
इतना कहते ही पहले सवार ने बंदूक छतिया ली और नली धर्मदास की छाती की ओर करके बोला-बस बोलो, क्या मंजूर है ?

धर्मदास सिर से पैर तक काँप कर बोला-अगर मैं इस्लाम कबूल कर लूँ तो मेरे साथियों को तो कोई तकलीफ न दी जायेगी ?
दूसरा-हाँ, अगर तुम जमानत करो कि वे भी इस्लाम कबूल कर लेंगे।
पहला-हम इस शर्त को नहीं मानते। तुम्हारे साथियों से हम खुद निपट लेंगे। तुम अपनी कहो। क्या चाहते हो ? हाँ या नहीं ?
धर्मदास ने जहर का घूँट पी कर कहा-मैं खुदा पर ईमान लाता हूँ।
पाँचों ने एक स्वर से कहा-अलहमद व लिल्लाह ! और बारी-बारी से धर्मदास को गले लगाया।
श्यामा हृदय को दोनों हाथों से थामे यह दृश्य देख रही थी। वह मन में पछता रही थी कि मैंने क्यों इन्हें पानी लाने भेजा ? अगर मालूम होता कि विधि यों धोखा देगा, तो मैं प्यासों मर जाती, पर इन्हें न जाने देती। श्यामा से कुछ दूर ख़ज़ाँचंद भी खड़ा था। श्यामा ने उसकी ओर क्षुब्ध नेत्रों से देख कर कहा- अब इनकी जान बचती नहीं मालूम होती।

ख़ज़ाँचंद-बंदूक भी हाथ से छूट पड़ी है।
श्यामा-न जाने क्या बातें हो रही हैं। अरे गजब ! दुष्ट ने उनकी ओर बंदूक तानी है !
ख़ज़ाँ.-जरा और समीप आ जायँ, तो मैं बंदूक चलाऊँ। इतनी दूर की मार इसमें नहीं है।
श्यामा-अरे ! देखो, वे सब धर्मदास को गले लगा रहे हैं। यह माजरा क्या है ?
ख़ज़ाँ.-कुछ समझ में नहीं आता।
श्यामा-कहीं इसने कलमा तो नहीं पढ़ लिया ?
ख़ज़ाँ.-नहीं, ऐसा क्या होगा, धर्मदास से मुझे ऐसी आशा नहीं है।
श्यामा-मैं समझ गयी। ठीक यही बात है। बंदूक चलाओ।
ख़ज़ाँ.-धर्मदास बीच में हैं। कहीं उन्हें न लग जाय।
श्यामा-कोई हर्ज नहीं। मैं चाहती हूँ, पहला निशाना धर्मदास ही पर पड़े। कायर ! निर्लज्ज ! प्राणों के लिए धर्म त्याग किया। ऐसी बेहयाई की जिंदगी से मर जाना कहीं अच्छा है। क्या सोचते हो। क्या तुम्हारे भी हाथ-पाँव फूल गये। लाओ, बंदूक मुझे दे दो। मैं इस कायर को अपने हाथों से मारूँगी।
ख़ज़ाँ.-मुझे तो विश्वास नहीं होता कि धर्मदास …

श्यामा-तुम्हें कभी विश्वास न आयेगा। लाओ, बंदूक मुझे दो। खडे़ क्या ताकते हो ? क्या जब वे सिर पर आ जायँगे, तब बंदूक चलाओ? क्या तुम्हें भी यह मंजूर है कि मुसलमान हो कर जान बचाओ ? अच्छी बात है, जाओ। श्यामा अपनी रक्षा आप कर सकती है; मगर उसे अब मुँह न दिखाना।

ख़ज़ाँचंद ने बंदूक चलायी। एक सवार की पगड़ी को उड़ाती हुई निकल गयी। जिहादियों ने ‘अल्लाहो अकबर !’ की हाँक लगायी। दूसरी गोली चली और घोड़े की छाती पर बैठी। घोड़ा वहीं गिर पड़ा। जिहादियों ने फिर ‘अल्लाहो अकबर !’ की सदा लगायी और आगे बढ़े। तीसरी गोली आयी। एक पठान लोट गया; पर इसके पहले कि चौथी गोली छूटे, पठान ख़ज़ाँचंद के सिर पर पहुँच गये और बंदूक उसके हाथ से छीन ली।

एक सवार ने ख़ज़ाँचंद की ओर बंदूक तान कर कहा-उड़ा दूँ सिर मरदूद का, इससे खून का बदला लेना है।
दूसरे सवार ने जो इनका सरदार मालूम होता था, कहा-नहीं-नहीं, यह दिलेर आदमी है। ख़ज़ाँचंद, तुम्हारे ऊपर दगा, खून और कुफ्र, ये तीन इल्ज़ाम हैं, और तुम्हें कत्ल कर देना ऐन सवाब है, लेकिन हम तुम्हें एक मौका और देते हैं। अगर तुम अब भी खुदा और रसूल पर ईमान लाओ, तो हम तुम्हें सीने से लगाने को तैयार हैं। इसके सिवा तुम्हारे गुनाहों का और कोई कफारा (प्रायश्चित्त) नहीं है। यह हमारा आखिरी फैसला है। बोलो, क्या मंजूर है ?
चारों पठानों ने कमर से तलवारें निकाल लीं, और उन्हें ख़ज़ाँचंद के सिर पर तान दिया मानो ‘नहीं’ का शब्द मुँह से निकलते ही चारों तलवारें उसकी गर्दन पर चल जायँगी !

ख़ज़ाँचंद का मुखमंडल विलक्षण तेज से आलोकित हो उठा। उसकी दोनों आँखें स्वर्गीय ज्योति से चमकने लगीं। दृढ़ता से बोला-तुम एक हिन्दू से यह प्रश्न कर रहे हो ? क्या तुम समझते हो कि जान के खौफ से वह अपना ईमान बेच डालेगा ? हिंदू को अपने ईश्वर तक पहुँचने के लिए किसी नबी, वली या पैगम्बर की जरूरत नहीं ! चारों पठानों ने कहा-काफिर ! काफिर !

ख़ज़ाँ.-अगर तुम मुझे काफिर समझते हो तो समझो। मैं अपने को तुमसे ज्यादा खुदापरस्त समझता हूँ। मैं उस धर्म को मानता हूँ, जिसकी बुनियाद अक्ल पर है। आदमी में अक्ल ही खुदा का नूर (प्रकाश) है और हमारा ईमान हमारी अक्ल …

चारों पठानों के मुँह से निकला ‘काफिर ! काफिर !’ और चारों तलवारें एक साथ ख़ज़ाँचंद की गर्दन पर गिर पड़ीं। लाश जमीन पर फड़कने लगी। धर्मदास सिर झुकाये खड़ा रहा। वह दिल में खुश था कि अब ख़ज़ाँचंद की सारी सम्पत्ति उसके हाथ लगेगी और वह श्यामा के साथ सुख से रहेगा; पर विधाता को कुछ और ही मंजूर था। श्यामा अब तक मर्माहत-सी खड़ी यह दृश्य देख रही थी। ज्यों ही ख़ज़ाँचंद की लाश जमीन पर गिरी, वह झपट कर लाश के पास आयी और उसे गोद में लेकर आँचल से रक्त-प्रवाह को रोकने की चेष्टा करने लगी। उसके सारे कपड़े खून से तर हो गये। उसने बड़ी सुंदर बेल-बूटोंवाली साड़ियाँ पहनी होंगी, पर इस रक्त-रंजित साड़ी की शोभा अतुलनीय थी। बेल-बूटोंवाली साड़ियाँ रूप की शोभा बढ़ाती थीं, यह रक्त-रंजित साड़ी आत्मा की छवि दिखा रही थी।
ऐसा जान पड़ा मानो ख़ज़ाँचंद की बुझती आँखें एक अलौकिक ज्योति से प्रकाशमान हो गयी हैं। उन नेत्रों में कितना संतोष, कितनी तृप्ति, कितनी उत्कंठा भरी हुई थी। जीवन में जिसने प्रेम की भिक्षा भी न पायी, वह मरने पर उत्सर्ग जैसे स्वर्गीय रत्न का स्वामी बना हुआ था।

धर्मदास ने श्यामा का हाथ पकड़ कर कहा-श्यामा, होश में आओ, तुम्हारे सारे कपड़े खून से तर हो गये हैं। अब रोने से क्या हासिल होगा ? ये लोग हमारे मित्र हैं, हमें कोई कष्ट न देंगे। हम फिर अपने घर चलेंगे और जीवन के सुख भोगेंगे ?

श्यामा ने तिरस्कारपूर्ण नेत्रों से देख कर कहा-तुम्हें अपना घर बहुत प्यारा है, तो जाओ। मेरी चिंता मत करो, मैं अब न जाऊँगी। हाँ, अगर अब भी मुझसे कुछ प्रेम हो तो इन लोगों से इन्हीं तलवारों से मेरा भी अंत करा दो।

धर्मदास करुणा-कातर स्वर से बोला-श्यामा, यह तुम क्या कहती हो, तुम भूल गयीं कि हमसे-तुमसे क्या बातें हुई थीं ? मुझे खुद ख़ज़ाँचंद के मारे जाने का शोक है; पर भावी को कौन टाल सकता है ?

श्यामा-अगर यह भावी थी, तो यह भी भावी है कि मैं अपना अधम जीवन उस पवित्र आत्मा के शोक में काटूँ, जिसका मैंने सदैव निरादर किया। यह कहते-कहते श्यामा का शोकोद्गार, जो अब तक क्रोध और घृणा के नीचे दबा हुआ था, उबल पड़ा और वह ख़ज़ाँचंद के निस्पंद हाथों को अपने गले में डाल कर रोने लगी।

चारों पठान यह अलौकिक अनुराग और आत्म-समर्पण देख कर करुणार्द्र हो गये। सरदार ने धर्मदास से कहा-तुम इस पाकीजा खातून से कहो, हमारे साथ चले। हमारी जाति से इसे कोई तकलीफ न होगी। हम इसकी दिल से इज्जत करेंगे।

धर्मदास के हृदय में ईर्ष्या की आग धधक रही थी। वह रमणी, जिसे वह अपनी समझे बैठा था, इस वक्त उसका मुँह भी नहीं देखना चाहती थी। बोला-श्यामा, तुम चाहो इस लाश पर आँसुओं की नदी बहा दो, पर यह जिंदा न होगी। यहाँ से चलने की तैयारी करो। मैं साथ के और लोगों को भी जा कर समझाता हूँ। खान लोेग हमारी रक्षा करने का जिम्मा ले रहे हैं। हमारी जायदाद, जमीन, दौलत सब हमको मिल जायगी। ख़ज़ाँचंद की दोैलत के भी हमीं मालिक होंगे। अब देर न करो। रोने-धोने से अब कुछ हासिल नहीं।

श्यामा ने धर्मदास को आग्नेय नेत्रों से देख कर कहा-और इस वापसी की कीमत क्या देनी होगी ? वही जो तुमने दी है?

धर्मदास यह व्यंग्य न समझ सका। बोला-मैंने तो कोई कीमत नहीं दी। मेरे पास था ही क्या ?

श्यामा-ऐसा न कहो। तुम्हारे पास वह खजाना था, जो तुम्हें आज कई लाख वर्ष हुए ऋषियों ने प्रदान किया था। जिसकी रक्षा रघु और मनु, राम और कृष्ण, बुद्ध और शंकर, शिवाजी और गोविंदसिंह ने की थी। उस अमूल्य भंडार को आज तुमने तुच्छ प्राणों के लिए खो दिया। इन पाँवों पर लोटना तुम्हें मुबारक हो! तुम शौक से जाओ। जिन तलवारों ने वीर ख़ज़ाँचंद के जीवन का अंत किया, उन्होंने मेरे प्रेम का भी फैसला कर दिया। जीवन में इस वीरात्मा का मैंने जो निरादर और अपमान किया, इसके साथ जो उदासीनता दिखायी उसका अब मरने के बाद प्रायश्चित्त करूँगी। यह धर्म पर मरने वाला वीर था, धर्म को बेचनेवाला कायर नहीं ! अगर तुममें अब भी कुछ शर्म और हया है, तो इसका क्रिया-कर्म करने में मेरी मदद करो और यदि तुम्हारे स्वामियों को यह भी पसंद न हो, तो रहने दो, मैं सब कुछ कर लूँगी।

पठानों के हृदय दर्द से तड़प उठे। धर्मान्धता का प्रकोप शांत हो गया। देखते-देखते वहाँ लकड़ियों का ढेर लग गया। धर्मदास ग्लानि से सिर झुकाये बैठा था और चारों पठान लकड़ियाँ काट रहे थे। चिता तैयार हुई और जिन निर्दय हाथों ने ख़ज़ाँचंद की जान ली थी उन्हीं ने उसके शव को चिता पर रखा। ज्वाला प्रचंड हुई। अग्निदेव अपने अग्निमुख से उस धर्मवीर का यश गा रहे थे।

पठानों ने ख़ज़ाँचंद की सारी जंगम सम्पत्ति ला कर श्यामा को दे दी। श्यामा ने वहीं पर एक छोटा-सा मकान बनवाया और वीर ख़ज़ाँचंद की उपासना में जीवन के दिन काटने लगी। उसकी वृद्धा बुआ तो उसके साथ रह गयी, और सब लोग पठानों के साथ लौट गये, क्योंकि अब मुसलमान होने की शर्त न थी। ख़ज़ाँचंद के बलिदान ने धर्म के भूत को परास्त कर दिया। मगर धर्मदास को पठानों ने इस्लाम की दीक्षा लेने पर मजबूर किया। एक दिन नियत किया गया। मसजिद में मुल्लाओं का मेला लगा और लोग धर्मदास को उसके घर से बुलाने आये; पर उसका वहाँ पता न था। चारों तरफ तलाश हुई। कहीं निशान न मिला।

साल-भर गुजर गया। संध्या का समय था। श्यामा अपने झोंपड़े के सामने बैठी भविष्य की मधुर कल्पनाओं में मग्न थी। अतीत उसके लिए दुःख से भरा हुआ था। वर्तमान केवल एक निराशामय स्वप्न था। सारी अभिलाषाएँ भविष्य पर अवलम्बित थीं। और भविष्य भी वह, जिसका इस जीवन से कोई सम्बन्ध न था ! आकाश पर लालिमा छायी हुई थी। सामने की पर्वतमाला स्वर्णमयी शांति के आवरण से ढकी हुई थी। वृक्षों की काँपती हुई पत्तियों से सरसराहट की आवाज निकल रही थी, मानो कोई वियोगी आत्मा पत्तियों पर बैठी हुई सिसकियाँ भर रही हो।

उसी वक्त एक भिखारी फटे हुए कपड़े पहने झोंपड़ी के सामने खड़ा हो गया। कुत्ता जोर से भूँक उठा। श्यामा ने चौंक कर देखा और चिल्ला उठी-धर्मदास !

धर्मदास ने वहीं जमीन पर बैठते हुए कहा-हाँ श्यामा, मैं अभागा धर्मदास ही हूँ। साल-भर से मारा-मारा फिर रहा हूँ। मुझे खोज निकालने के लिए इनाम रख दिया गया है। सारा प्रांत मेरे पीछे पड़ा हुआ है। इस जीवन से अब ऊब उठा हूँ; पर मौत भी नहीं आती।

धर्मदास एक क्षण के लिए चुप हो गया। फिर बोला-क्यों श्यामा, क्या अभी तुम्हारा हृदय मेरी तरफ से साफ नहीं हुआ! तुमने मेरा अपराध क्षमा नहीं किया !
श्यामा ने उदासीन भाव से कहा-मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझी।
‘मैं अब भी हिंदू हूँ। मैंने इस्लाम नहीं कबूल किया है।’
‘जानती हूँ !’
‘यह जान कर भी तुम्हें मुझ पर दया नहीं आती !’

श्यामा ने कठोर नेत्रों से देखा और उत्तेजित होकर बोली-तुम्हें अपने मुँह से ऐसी बातें निकालते शर्म नहीं आती ! मैं उस धर्मवीर की ब्याहता हूँ, जिसने हिंदू-जाति का मुख उज्ज्वल किया है। तुम समझते हो कि वह मर गया ! यह तुम्हारा भ्रम है। वह अमर है। मैं इस समय भी उसे स्वर्ग में बैठा देख रही हूँ। तुमने हिंदू-जाति को कलंकित किया है। मेरे सामने से दूर हो जाओ।

धर्मदास ने कुछ जवाब न दिया ! चुपके से उठा, एक लम्बी साँस ली और एक तरफ चल दिया।
प्रातःकाल श्यामा पानी भरने जा रही थी, तब उसने रास्ते में एक लाश पड़ी हुई देखी। दो-चार गिद्ध उस पर मँडरा रहे थे। उसका हृदय धड़कने लगा। समीप जा कर देखा और पहचान गयी। यह धर्मदास की लाश थी।


मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखित कहानी जिहाद. ..

Saturday, June 5, 2021

भाषा और पर्यावरण

आज विश्व पर्यावरण दिवस है। इस अवसर पर भारतीयता के मूल- प्रकृति को दर्शाने वाली हिंदी भाषा को लेकर मेरे मन में कुछ चिंतन उभरते हैं जिनका समाधान सत्ता एवं व्यवस्था के पास है पर वो इसे अमल में नहीं लाना चाहती।


स्वतंत्रता के अमृत वर्ष पर क्या यह इस देश का दुर्भाग्य नहीं है कि इस देश की राष्ट्रीय प्रकृति के अनुरूप इसकी अपनी कोई भाषा सरकारें या व्यवस्था अभी तक स्वीकार नहीं कर पाई है।


ज़रा सोचिए! इस देश के निवासियों के अधिकार एवं कर्तव्य की रक्षा सरकारें किस भाषा में करती हैं। मतलब हम आज भी भाषाई एवं वैचारिक तौर पर ग़ुलाम हैं। फिर हमारे सामाजिक एवं सांस्कृतिक पर्यावरण की निर्मिति किस प्रकार की होगी? यह प्रश्न निश्चय ही विचारणीय है।


प्रसिद्ध पर्यावरणविद् स्वर्गीय अनुपम मिश्र कहते हैं, “किसी समाज का पर्यावरण पहले बिगड़ना शुरू होता है या उसकी भाषा- हम इसे समझकर संभल सकने के दौर से अभी तो आगे बढ़ गए हैं। हम ‘विकसित’ हो गए हैं। भाषा यानी केवल जीभ नहीं। भाषा यानी मन और माथा भी।


एक का नहीं, एक बड़े समुदाय का मन और माथा जो अपने आसपास के और दूर के भी संसार को देखने-परखने-बरतने का संस्कार अपने में सहज संजो लेता है। यह संस्कार बहुत कुछ उस समाज की मिट्टी, पानी, हवा में अंकुरित होते हैं, पलते-बढ़ते हैं और यदि उनमें से कुछ मुरझाते भी हैं तो उनकी सूखी पत्तियाँ वहीं गिरती हैं, उसी मिट्टी में खाद बनाती हैं। इस खाद यानी असफलता की ठोकरों के अनुभव से भी समाज नया कुछ सीखता है।”


इस पूरे उद्धरण को यदि समझें तो भाषा, संस्कृति और पर्यावरण के अंतरसंबंधों को सहजता से समझा जा सकता है। भाषा या बोली मात्र बोलने का माध्यम नहीं होते, उनमें एक संस्कृति छुपी होती है। भाषा के बदलने से एक पूरा समाज प्रभावित होता है क्योंकि यह हमारे दिमाग को बदलता है।


औपनिवेशिक शासन व्यवस्था और तदंतर गढ़े विकास ने हमारी प्रकृति और पर्यावरण के साथ ही हमारी सामाजिकता को भी नष्ट किया है।  इस व्यवस्था ने विष की भाँति धीरे-धीरे पूरे समाज एवं संस्कृति को बदल दिया है जिसमें एक बड़ी आबादी को हमारी संस्कृति का सब कुछ पुराना, पिछड़ा और दक़ियानूसी लगता है।


इस सोच ने पर्यावरण और प्रकृति का बहुत बड़ा नुकसान किया है। अंधाधुंध विकास ने हमारे पूरे प्राकृतिक चक्र को बिगाड़ कर रख दिया है।  जल, जंगल और ज़मीन के मूल स्रोत के निवासियों को हमने अंग्रेज़ों से मिली उधार की सीख के आधार पर पिछड़ा एवं आदिवासी मान लिया, जबकि भारत इन्हीं पिछड़े और संपन्न क्षेत्रों में मिले प्राकृतिक संसाधनों से एक समृद्ध देश माना गया।


भारतीय संस्कृति में प्रारंभ से ही प्रकृति और पर्यावरण को विशेष महत्त्व दिया गया है। हमारी संस्कृति में पर्यावरण के विविध स्वरूपों को “देवताओं” के समकक्ष मानकर उनकी पूजा-अर्चना करने की परंपरा रही है। “माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या” अर्थात पृथ्वी हमारी माता है एवं हम सभी देशवासी इस धरा की संतान हैं।


इसी प्रकार पर्यावरण के अनेक अन्य घटकों यथा पीपल, तुलसी, वट के वृक्षों को पवित्र मानकर पूजा जाता है। अग्नि, जल एवं वायु को भी देवता मानकर उन्हें पूजने की परंपरा रही है। समुद्र, नदी को भी पूजन करने योग्य माना गया है। गंगा, यमुना, कावेरी, गोदावरी, सिंधु एवं सरस्वती आदि नदियों को पवित्र मानकर पूजा जाता है। हमारे यहाँ तो पशु एवं पक्षियों का भी आदर करना सिखाया गया है।


इन सभी के बावजूद औपनिवेशिक शासन व्यवस्था तथा अपनी भाषा एवं संस्कृति को निम्नतर देखने की प्रवृत्ति ने हमारी प्रकृति और पर्यावरण का बहुत बड़ा अहित किया है। हमने अंधाधुंध विकास को ही सब कुछ मान लिया, जिसका परिणाम हमारे सामने है।


देश के तमाम गाँवों के निवासी आज भी पर्यावरण के सरकारी परिभाषा को नहीं समझते हैं पर उन्हें प्रकृति से प्रेम करना आता है क्योंकि यह उनकी संस्कृति और परंपरा का हिस्सा है, जबकि सरकारी शब्दावली में एक हद तक पर्यावरण को बस विकास से जोड़कर देखने की परंपरा रही।


सरकार ने पर्यावरण रक्षा के नाम पर तमाम योजनाएँ चलाई पर उनमें देशीपन का अभाव रहा। यहीं पर हमारी संस्कृति और भाषा का महत्त्व स्थापित होता है। अपनी भाषा, संस्कृति और ज्ञान से कटकर हमने अपने जल के स्रोतों कुआँ, तालाब को मृतपाय बना डाला।


देश के गाँवों में स्थित वनों को विकास और आबादी के कारण कृषि क्षेत्र में बदल दिया गया। हमारे पुरखे प्रकृति और पर्यावरण के महत्त्व को समझते थे। आज भी राजस्थान के रेगिस्तानी क्षेत्रों में ‘ओरण’(अरण्य से बना शब्द) की व्यवस्था है। इस प्रकार के ओरण गाँवों के वन, मंदिर देवी के नाम पर छोड़े जाते हैं। इन ओरणों के रक्षा का दायित्व ग्रामीणों के ऊपर ही होता है और इनको अकाल के समय में ही खोला जाता है।


स्वर्गीय अनुपम मिश्र अपने आलेख में कहते है, “इन वनों की रखवाली इनका श्रद्धा और विश्वास करता रहा है।”  1000-1200 वर्ष पुराने ओरण भी यहाँ मिल जाएँगे पर इस प्रकार की समृद्ध परंपरा से सरकारें अपरिचित हैं क्योंकि हमारी सरकारों का एक बड़ा वर्ग अपनी भाषा और संस्कृति से कटा हुआ है।


हमने अपनी ग्रामीण व्यवस्था एवं परंपरा को पिछड़ा मान लिया। यही कारण है कि हमने अपनी कृषि की प्रत्येक समृद्ध परंपरा को बिना सोचे-समझे पिछड़ा मान लिया। परिणामस्वरूप सरकारों द्वारा स्थापित अधिकांश योजनाएँ समाज की मूलभूत आवश्यकताओं से कटी हुई, क्योंकि इन्हें तैयार करने वाले शिक्षा व्यवस्था के कारण ग्रामीण परंपराओं से अपरिचित रहे।


जन से कटे रहने के कारण अधिकांश योजनाएँ असफल सिद्ध हुईं। इसका मूल कारण रहा इन योजनाओं को तैयार करने वाले अधिकांश नीति-निर्माता किंडर शिक्षा पद्धति में पले-बढ़े अथवा व्यवस्था इनकी पोषक रही। पर्यावरण आधारित सरकार की अधिकांश योजनाओं के नाम को देख लें तो ऐसा प्रतीत होगा इन योजनाओं को तैयार तो भारत में किया गया है पर इनका सोच एवं क्रियान्वयन पश्चिम आधारित रहा।


अत: ये अधिकांश समाज से कटी रही। हमने नदियों के जल को पानी अथवा विद्युत स्रोत मानकर उनका दोहन किया। हमने नदियों को प्रदूषण का केंद्र बना डाला, वह भी तब जब इस देश में भागीरथ की कथा जनश्रुतियों में मौजूद है। पर यह केवल श्रुतियों तक सीमित रह गया, जिसका नुकसान हम सब देख रहे हैं।


अब समय आ गया है कि हम अपनी प्रकृति और पर्यावरण के महत्व को समझें। इस महत्व के प्रसार में हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी एवं देशी भाषाओं का बहुत बड़ा योगदान है। हम सभी अपनी मिट्टी, भाषा, संस्कृति से अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं।


इस देश की मूल प्रकृति की रक्षा के लिए जनभाषाओं को अपनाया जाना बेहद आवश्यक है। इससे जहाँ हम अपने समाज, संस्कृति, परंपरा की रक्षा कर सकते हैं, वहीं देश के लोकतांत्रिक पर्यावरण को भी मजबूती दे सकते हैं। हिंदी इस देश की जीवतंता के लिए आवश्यक है क्योंकि यह गुण, भाव से समावेशी, सर्वग्राही है जो प्रकृति एवं भारतीयता का मूल तत्व है।


आईए! पर्यावरण दिवस के अवसर पर इस देश के निवासियों के सशक्तिकरण के लिए, राष्ट्रीय कार्य-व्यवहार में राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी एवं देशी भाषाओं को दृढ़तापूर्वक अपनाने का संकल्प लें।


डॉ साकेत सहाय भाषा-संचार-संस्कृति विशेषज्ञ एवं संप्रति वरिष्ठ प्रबंधक-राजभाषा, पंजाब नैशनल बैंक हैं।



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