वर्तमान परिप्रेक्ष्य में संत कबीर की प्रासंगिकता
संत साहित्य में अपभ्रंश व
सिद्ध,
जन साहित्य, नाथ पंथ और वैष्णव भक्ति आंदोलनों
का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। संत नामदेव, गुरूनानक महाराज, दादूदयाल, सुंदरदास, रज्जबदास,
मलूकदास, सहजोबाई इत्यादि का संत साहित्य में
महत्वपूर्ण योगदान रहा है। परंतु इसमें कोई दो राय नहीं कि संत धारा साहित्य में
कबीरदास अग्रिम अधिकारी रहे हैं। हिंदी संत काव्य की दृढ़ नीव रखने वाले कबीरदास
हुए हैं। कबीरदास के
साहित्य का मुख्य उद्देश्य कर्मकांड की विसंगतियों को दूर कर समतामूलक समाज की
स्थापना करना रहा। कबीरदास एक संतकवि होने के साथ ही एक समाज सुधारक की भूमिका में
भी थे और जातिविहीन समाज व नारी अधिकारों के सचेतक थे।
संत साहित्य का प्राण
तत्त्व है-लोक धर्म। सत रुपी परम तत्व का
साक्षात्कार कर लेने वाले व्यक्ति को संत कहा जाता है। डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल ने संत का संबंध ‘शांत’ से माना है और इसका अर्थ निरूपित किया है –
निवृत्ति मार्गी या वैरागी। सामान्यत:
सदाचार के लक्षणों से युक्त व्यक्ति को संत कहा जाता है। जो आत्मोन्नति एवं लोकमंगल में रत हो। इस अर्थ में अगर देखें तो ‘कबीरदास’ भक्तिकाल के महान कवि, समाज सुधारक थे; जिन्होंने अपनी रचनाओं के द्वारा
तत्कालीन समाज को एक नई दिशा देने का प्रयास किया। आज की विचाराधारात्मक उठा-पठक और सामाजिक समस्याओं के बीच अनेक बार
कबीर की बानियों के हवाले दिए जाते है।
उनकी उक्तियों की सार्थकता बतायी जाती हैं। आज भी हिंदू समाज की सवर्ण या दलित समस्याओं या
मुस्लिम कट्टरपंथी समस्याओं से लड़ने हेतु कबीरदास अक्सर याद किए जाते हैं।
‘कबीर’ भक्तिकाल के महान कवि, समाज सुधारक थे; जिन्होंने अपनी रचनाओं के द्वारा तत्कालीन समाज को एक नई दिशा देने का
प्रयास किया। यह कबीर के साहित्य की ही देन है कि इतने वर्षों बाद भी हम उनकी
रचनाओं में अपनी समस्याओं का हल देखते हैं। कबीर के साहित्य की प्रासंगिकता दो
दृष्टियों से है:-
·
प्रथमत
: साहित्य चाहे किसी भी काल का हो यदि वह वास्तविक साहित्य है तो सदा प्रासंगिक
रहेगा। पठनीय रहेगा।
·
द्वितीयत: उसका कथ्य, संदेश
हैं। कबीर ने अपनी रचनाओं के द्वारा एक
कथ्य और संदेश देने का प्रयास किया जो आज भी प्रासंगिक है और इन्हीं कथ्य,
संदेशों के द्वारा कबीर प्रासंगिक है।
कबीरदास की रचनाओं पर बीती आधी सदी में आचार्य रामचंद्र शुक्ल एवं हजारी
प्रसाद द्विवेदी ने ‘कबीर’ तथा नामवर सिंह ने ‘दूसरी परंपरा की खोज’ नामक पुस्तक में कबीर की पुन:
प्रतिष्ठा में काफी कुछ लिखा है। इससे पूर्व
भी कबीरदास जी के ऊपर
कविगुरू रवीन्द्रनाथ ठाकुर की रचना ‘वन हंड्रेड पोयम्स
ऑफ कबीर’, जिसमें संत कबीरदास जी के दोहे का अंग्रेजी
अनुवाद है। ‘वन हंड्रेड पोयम्स ऑफ कबीर’ अपने पहले संस्करण के समय से ही लगातार छप रही
है तथा इसने पश्चिम में कबीर की लोकप्रिय छवि स्थापित करने में महत्वपूर्ण योगदान
दिया है। वर्ष 1910 में ही जब टैगोर
अंग्रेजी में लिख रहे थे, तब उन्होंने कबीर को एक उदाहरण के तौर पर
इस्तेमाल किया कि कैसे भारतीय अध्यात्म ने समुदायों के बीच विभाजन को पाटने का
कार्य किया और कबीर, नानक और चैतन्य जैसे आध्यात्मिक गुरुओं ने
अपने-अपने समुदायों और ईश्वर के बीच परस्पर संबंधों का संदेश दिया।
व्यक्ति और पर-ब्रह्म के बीच संबंधों पर बात करते हुए टैगोर अक्सर
कबीर की ही सहायता लेते है। अपनी रचना ‘पर्सनेलिटी’ में, जो कि 1917 में अमेरिका में उनके व्याख्यान पर
आधारित एक किताब है, वह जिक्र करते हैं कि कैसे ‘इंसान को एक से दूसरे के साथ सीधे संवाद के लिए
जाना जाता है।‘ वह संवाद रुप और बदलावों की दुनिया में नहीं, दिक् और काल के विस्तार में भी नहीं, बल्कि यह संवाद चेतना के उस अंतरतम अकेलेपन में
होता है, जो कि बेहद गहन और तीव्र होते हैं। इसके बाद उन्होंने इस विचार को पुष्ट करने के
लिए कबीर के अपने संकलन में से 76वें दोहे को उद्धृत किया। भारत के संबंध में अक्सर कबीर का उल्लेख करते
हैं। जैसे अपनी किताब नेशनलिज्म(1916) में
वह यह चर्चा करते हैं कि कैसे भारत में सांप्रदायिक सौहार्द स्थापित हुआ और फिर
अपने विचार के समर्थन में नानक, कबीर और चैतन्य को
उद्धृत करते हैं।
कबीर में टैगोर की दिलचस्पी उनके सहयोगी क्षितिमोहन सेन (1880-1960)
से भी प्रभावित थी। अपनी रचना ’इंडियन मिस्टिसिज्म’ में
उन्होंने विस्तार से बताया है कि जब वह 1908 में शांतिनिकेतन पहुंचे, तब वह कबीर के पदों पर काम कर रहे थे और जब टैगोर को यह मालूम हुआ, तो उन्होंने इसे प्रकाशित करने के लिए उनको प्रोत्साहित किया। 1910 और 1911 में उन्होंने चार पर्चे छपवाए, जिसमें एक संक्षिप्त परिचय, बांग्ला लिपि में हिंदी
के पदों तथा बांग्ला में उन पदों की विस्तारपूर्वक व्याख्या थी। टैगोर कबीर को
भारत की धार्मिक एकता का उदाहरण मानते थे, इस बात को और
क्षितिबाबू के कबीर पर किए गए काम को देखें तो यह समझ में आता है कि कबीर का
अनुवाद उनके लिए कितना महत्वपूर्ण था।
कबीर मूलत: आध्यात्मिक
व्यक्ति थे, भक्त थे, संत थे। वे ‘मन’ को जीतने के लिए संतों और भक्तों को प्रेरित करते रहते थे। कबीर का सारा
का सारा संघर्ष आसक्ति और तृष्णा के विरूद्ध था।
यही बात उन्हें सामाजिक दृष्टि से प्रासंगिक बनाती है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कबीर को
समाज-सुधारक नहीं मानते है। उनके अनुसार
कबीर पहले कवि थे, समाज सुधारक बाद में। समाज-सुधारक न मानने के पीछे आचार्य जी के जो
भी तर्क हों, इतना अवश्य है कि कबीर के विचार समाज की चक्की
में पिस-पिस कर ही इतने सूक्ष्म बने थे।
हो सकता हैं समाज-सुधार, उनका मुख्य उद्देश्य न रहा
हो, लेकिन जिस समाज के बाशिंदों को वह संबोधित करते थे, वे समाज में हाशिए पर पड़े हुए लोग थे।
चतुर सामाजिक जन सारी मलाई खुद मार ले जाते थे और छाछ अबोधों के लिए छोड़
जाते थे। कबीर की सारी लड़ाई इसी अन्याय के
खिलाफ थी। कविता के माध्यम से कबीर की समाज की बुराईयों पर जो चोट करते हैं, वह समाज-सुधार का ही तो हिस्सा है।
समाज-सुधार और क्या होता है?
कविता रूपी झाड़ू से समाज
की गंदगी को वे बुहारते जाते थे। आधुनिक
प्रचलित तरीकों की दृष्टि से वे समाज सुधारक भले ही न कहलाएँ, लेकिन कबीर की कविताओं, दोहों, पदावलियों में समाज-सुधार की भावना से युक्त आध्यात्मिक भूमि दिखाई देती
है। कई बार आध्यात्मिक पक्ष भारी पड़ता
है। कुल मिलाकर देखें, तो कबीर की कविताई इन दोनों के मधुर पाक की तरह है।
कबीर अपने दौर के प्रौढ़
रचनाकार हैं। उनकी कविताओं में
प्रगतिशीलता का तत्व प्रधान रूप से विद्यमान है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कबीर को कवि न मानकर समाज सुधारक माना है, जबकि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उन्हें कवि माना और यह सिद्ध किया
कि समाज सुधार उनकी कविता और कवित्व क्षमता के ‘बाई प्रोडक्ट’ के मानिंद है।
मेरी दृष्टि में उक्त
दोनों आचार्यों की पहली स्थापना ठीक है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, कबीर समाज सुधारक
थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के मत
में कबीर कवि हैं। उनकी दूसरी स्थापनाओं
में नकारात्मक अभिव्यक्ति दिखाई पड़ती है।
अत: कबीर के संदर्भ में उनकी सकारात्मक अभिव्यक्तियों को लेते हुए मेरा
विचार है कि कबीर कवि, समाज सुधारक,
संत, भक्त तथा प्रगतिशील विचारक हैं। इस प्रसंग में डॉ.
रामचंद तिवारी के कुछ वाक्य उद्धृत हैं जो उन्होंने कबीर के बारे में लिखे हैं:-
‘’कबीरदास एक सिद्ध
साधक एवं अखंड आस्थावादी इस विराट विश्व के मूल में विद्यमान रहस्यमयी सत्ता की
कण-कण में अनुभूति करने वाले सच्चे रहस्यवादी, मानव-मात्र की
एकता का प्रतिपादन करने वाले विवेकशील समाजद्रष्टा,
निर्गुण-सगुण के भेद से ऊपर समतत्व का ध्यान करने वाले योगतत्वविद्, दार्शिनिक और सहज मानवीय जीवन की प्रतिष्ठा में अवरोधक शक्तियों के
विरूद्ध विद्रोह करने वाले प्रज्ज्वलित चेतना के कवि थे।‘’
प्रस्तुत आलेख का केंद्र
विंदू यही है कि वर्तमान दौर में कबीर के साहित्य की सार्थकता कितनी है। क्योंकि वर्तमान दौर में कबीर एक साहित्यिक, धर्मगुरू के रूप ज्यादा दिखाई पड़ते है।
जबकि वह मूल रूप से समाज सुधारक है। उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी समाज में
हाशिए पर पड़े लोगों को मुख्यधारा में लाने हेतु संघर्षों में बिता दिया। कबीर की सार्थकता निम्न विंदूओं से समझी जा
सकती है।
·
कबीर की बानियों में दिखावटी धर्म
से विद्रोह और वास्तविक धर्म के प्रचार का क्रांतिकारी पहलू यह था कि उसने मध्यकाल
में मनुष्य को आत्मप्रतिष्ठा, आत्मसम्मान और आत्मविश्वास
दिया। मनुष्य को मनुष्य से प्रेम करना सिखाया।
·
कबीर के जीवन का सबसे बड़ा संदेश
आज के मनुष्यों के लिए यह है कि उन्होंने व्यापार और शिल्प की आमदनी पर संतोष करते
हुए आम जीवन जीया। आज के संदर्भ में हम
सभी को इसे सीखने की जरुरत है।
·
उर्दू के प्रगतिशील शायर अली
सरदार जाफरी के अनुसार, ‘’हमें आज भी
कबीर के नेतृत्व की जरुरत हैं। उस रोशनी
की जरुरत है जो इस संत के दिल से पैदा हुई थी।
आज दुनिया आजाद हो रही हैं। विज्ञान की असाधारण प्रगति ने मनुष्य का प्रभुत्व बढ़ा दिया है।
उद्योगों ने उसके बाहुबल में वृद्धि कर दी है। फिर भी वह तुच्छ है। संकटग्रस्त है।
दुखी है। वह रंगों में बंटा हुआ है।
जातियों में विभाजित है। आपस में धर्मों की दिवारें खड़ी हुई है।‘’
उपरोक्त पंक्तियों को अगर
हम देखें तथा भक्ति काल के समय की परिस्थितियों को देखें तो पायेंगे कि आज के समय
में कबीर की कितनी जरुरत है। विषय और
सांकेतिक व्यंजनाओं के कारण कबीर की बानियां आज के पाठकों को समकालीन जीवन के बदले
हुए संदर्भों में झकझोरती है जितनी मध्यकालीन यथार्थबोध के संदर्भों में।
कबीर के सामाजिक चिंतन की
सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि उनमें एक अद्भुत संतुलन मौजूद है, जो किसी भी रचनाकार की लेखकीय ईमानदारी का उदाहरण है। पर उससे भी बड़ी बात है उनका मनुष्य होना। इस एक बिंदु पर कबीर हमें आश्वस्त ही नहीं करते, बल्कि कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि उनका संवेदनशील मनुष्य उनके कवि से भी
ज्यादा महान है। तभी तो वे समस्त सांसारिक
पीड़ा को ओढ़े हुए हैं –
चलती
चाकी देखि के दिया कबीरा रोय ।
दुई पाटन
के बीच में साबुत बचा न कोय ॥
उनकी आत्म–पीड़ा लोक-पीड़ा
और लोकानुभूति से निष्पन्न एक ऐसी छटपटाहट है जो उनकी जीवन-साधना का अंग बन गई तथा
जिसमें विषपान कर अमृत बाँटने का संदेश है।
पराई पीर को समझना, मध्यकालीन लोक जागरण का वह
गुरूमंत्र था, जो शताब्दियों से दबी-कुचली मानवता के लिए
लोक-वेद का मंत्र बन गया। इस अर्थ में
कबीर गरलपायी हैं।
कबीर ने भेदभाव की समस्त
सीमाओं को तोड़कर, भक्त के रूप में जिस आदर्श मानव को
सामने रखा है, वह मानव व्यक्तित्व के विकास की संपूर्ण
संभावनाओं को निश्शेष कर उसे ईश्वरत्व के स्तर पर पहुंचा देने वाला है। इस रास्ते में जो भी चीज उन्हें बाधक लगी, उस पर अत्यंत सीधी-सपाट भाषा में वे तीखी चोट करते हैं।
कबीर ने इस बात को बड़ी
अच्छी तरह से समझ लिया था कि प्रभुवर्गीय संस्कृति के विरूद्ध संघर्ष करने के लिए
पंडे-पुरोहितों और मुल्ला-मौलवियों के सामाजिक–धार्मिक वर्चस्व को तोड़ना जरूरी
है। लेकिन यह कार्य, जितना आवश्यक था, उतना ही कठिन भी। पुरोहितों के लिए कर्मकाण्डी विधानों का बना
रहना जरूरी था, तो जन-साधारण के हित इनसे मुक्त होने में
था। इस क्रम में वाद-विवाद की तार्किक
शैली में लिखी गई कबीर की कविता प्राय: संबोधित कविता है और उसमें संबोधन के तीन
स्वर हैं, जो उनके सामाजिक चिंतन की दशा और दिशा को
निर्धारित करते हैं। प्रथम स्तर पर कबीर
की कविता ‘अवधू’ अथवा ‘अवधूत’ को संबोधित है, तो
दूसरे स्तर पर पाँड़े, ‘पंडित, ‘काजी’, और मुल्ला को। इसी प्रकार तीसरा स्तर जनता को संबोधित कविता
है, जहाँ संबोधन के शब्द हैं- ‘साधो’ और ‘संतो’। व्यंग्य करने में उनका कोई सानी नहीं। पंडित हो या काजी, अवधू
हों या जोगिया, मुल्ला हों या मौलवी,
सभी को वे अपने व्यंग्य के निशाने पर रखते थे।
और फिर चूंकि भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था, अत:
वे जिस बात को जिस रूप में प्रकट करना चाहते थे, उसी रूप में
भाषा से कहलवा लेते थे। कबीर के
व्यक्तित्व के सामने भाषा कुछ असहाय-सी दरिद्र नजर आती है। जो बात कहनी असंभव हो,
उसको नया स्वरूप देकर मनोग्राही बना देने की शक्ति कबीर की भाषा में है। वैसे
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का यह प्रचलित कथन है कि ‘’हिंदी-साहित्य के हजार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा धनी व्यक्तित्व
लेकर कोई अन्य लेखक उत्पन्न नहीं हुआ।‘’
उनका विरोध सांसारिक
दृष्टि से दु:खी होने से है और भेद-भाव से भी।
विरोध का स्वर तीखा है, कड़वा है। कहते हैं दु:खी तो सब हैं..........
‘’जोगी दुखिया जंगम दुखिया तपसी कौ दुख दूना हो।
आसा
त्रिसना सबको व्यापै कोई महल न सूना हो। ‘’
और दु:ख का कारण ये ‘आसा’ और ‘त्रिसना’ ही हैं। अत: मन के विकारों- ‘आसा’ और ‘त्रिसना’ का शमन करना ही होगा। मानव-मानव
में भेद तो परम अज्ञान का सूचक है। इसी
तात्विक दृष्टि से अभिप्रेरित होकर कबीर ने जाति-पाँति, छुआ-छूत, ऊँच-नीच और ब्राह्मण-शूद्र के भेद का विरोध किया है। वे कहते हैं कि तत्त्वत: ये मिथ्या हैं तथा एक
ही ज्योति सबमें व्याप्त है, दूसरा कोई तत्त्व नहीं-
‘’एकहि जोति सकल घट व्यापत दूजा तत्त न होई।
कहै कबीर
सुनौ रे संतो भटकि मरै जनि कोई॥‘’
परमात्मा ने एक ही बूँद से
सारी सृष्टि रची है, फिर ब्राह्मण-शूद्र का भेद क्यों? यदि हिंदू और तुर्क दो होते, तो जन्म से ही उनमें
अंतर होता।
छूआछूत का विरोध भी कबीर
ने इसी आधार पर किया। कहते हैं कि पवित्र
स्थान कौन-सा है?
विचार करने पर माता-पिता भी जूठे हैं और वृक्षों में लगने वाले फल भी, अग्नि और जल भी जूठे हैं। गोबर
और चौका भी जुठे हैं। और तो और, अन्न भी जूठी कलछी से ही परोसा जाता है।
वस्तुत: पवित्र और शुद्ध तो वे ही लोग हैं, जिन्होंने
हरि की भक्ति करके अपने मन के विकारों को दूर कर लिया है। वे मन की पवित्रता और आंतरिक शुद्धता पर बल
देते हैं। यह मन की पवित्रता भी एक
आध्यात्मिक सत्य है।
‘’कहु पंडित सूचा कवन ठाऊ।
माता-पिता
भी जूठा-जूठे ही फल लागे।
कहै कबीर
तेई जन सूचे।
जे हरि
भजि तजहिं विकारे।‘’
कबीर ने साधन के सभी
क्षेत्रों में बाह्याचार का विरोध किया है।
आडंबरी योगियों, तिलकधारी
वैष्णवों-लुंचितों-मुण्डितों-मौनियों-जटाधारी से लेकर पीर-मुराद-काजी-मुल्ला-दरवेश
आदि सभी भ्रांति में पड़े हुए हैं। ये
अहंकार में पड़कर सत्य से विमुख हैं। वे तो
पूजा-अर्चना, तीर्थ-व्रत तथा रोजा-नमाज, सभी को बाह्याचार ही मानते हैं।
यहाँ पर वे कहते हैं:
‘’काँकर-पाथर जोरि के मस्जिद लियो चुनाय।
त चढ़ि
मुल्ला बाँग दे क्या बहरो भयो खुदाय ॥‘’
यानी अल्लाह बहरे नहीं हैं, मन से आवाज लगाओ, तुम्हारी आवाज उन तक जरूर
पहुंचेगी। वे आगे कहते हैं:
‘’पाहन पूजै हरि मिले तो मैं पूजूँ पहार।
ताते वो
चाकी भली पीस खाय संसार॥‘’
यहाँ पर वे मूर्ति-पूजा के
आडंबर को प्रश्न चिन्ह को घेरे में रखते हैं और मन की पूजा तथा कर्म की साधना पर
बल देते हैं। तप-जप, रोजा-नमाज, ये सब मन को परिष्कृत करने के साधन हैं। यदि दिल साफ नहीं, तो ‘वजू’ करने से क्या लाभ?
‘’क्या उजू जप मंजन कीएँ क्या मसीति सिरू नाएँ।
दिल महिं
कपट निवाज गुजारै क्या हज काबै जाएँ।‘’
मस्जिद में जाकर सिर नवाने
से क्या बनेगा? नमाज
गुजारना या हज और काबे जाना तभी सार्थक है, जब दिल में कपट
नहीं है। आशइ यह है कि कबीरदास ने जहाँ
कहीं ढोंग, दिखावा, कपट, धोख, फरेब, आडम्बर, स्वांग, प्रपंच, छ्ल, छद्म देखा, वहीं पर निर्मम प्रहार किया।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल
कबीर को संत तो मानते थे, कवि नहीं। जबकि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी उन्हें सहज
प्रवृत्ति का कवि कहते थे। कबीर की
सामाजिक पकड़ इतनी जमीनी और इतनी गहरी थी कि कविता की अट्टालिकाएँ काफी सहज और ऊँची
बनती जाती दिखती हैं। इस मायने में, कबीर की फक्कड़ प्रवृत्ति उनको काफी साफ-सुथरे व्यक्तित्व का स्वामी एवं पारदर्शी
संत के रूप में सामने लाती है। यहाँ उनको
पारदर्शी कहना तर्कसंगत इसलिए है कि वे कथनी-करनी दोनों में भेद नहीं करते थे
और इस बात का सामाजिक जीवन के क्षेत्र-कर्मक्षेत्र में वे विरोध करते थे। अपनी लेखनी के माध्यम से भी उन्होंने इस
प्रवृत्ति को खत्म करने की मानो कसम खा ली थी।
‘’कबिरा खड़ा बजार में लिए लुकाठी हाथ।
जो घर
जारे आपना चल हमारे साथ॥‘’
यहाँ मशाल यानी लुकाठी
भगवान बुद्ध के ‘अप्प दीपो भव’, अर्थात् ‘स्वयं का प्रकाश खुद बनो’ उक्ति की ओर बढ़ते रहने की
प्रेरणा देने वाला उपकरण सरीखा है। साथ ही, मन रूपी घर में जो अनुचित भावनाएँ घर कर गई हैं,
उन्हें जलाने के जो लोग इच्छुक हैं, वे केवल उनको अपने-साथ आने की चुनौती देते हैं। ऐसी चुनौतियाँ तो आज के जमाने में और भी
प्रासंगिक हो गई हैं, क्योंकि तब के जमाने से लेकर अब तक मन
के भीतर काई की परतें और ज्यादा जम गई हैं।
कवित्व का दंभ कबीर में भले न रहा हो, परंतु जमीनी
सच्चाई की अभिव्यक्ति अपने अलग व निराले अंदाज में जिस कवित्व प्रतिभा तथा पटुता
के साथ उन्होंने की है, वह वाकई काबिले-गौर तथा काबिले-तारीफ
भी है।
सूक्ष्म से सूक्ष्म
अभिव्यक्तियाँ कितनी सरल और सपाट हो सकती हैं, यह अगर देखना हो, तो कबीर वाङ्गमय में देखिए। कैसा भी दुर्बोध विचार, कैसे भी गूढ़ निहितार्थों वाले तथ्य कबीर सामाजिक-दार्शनिकों के सामने ऐसे
परोसते हैं, मानो पकी-पकाई खिचड़ी। कबीर जीवनानुभव को ही अपनी लेखनी से उकेरते
थे। सुनी-सुनाई बातों पर उनका विश्वास
नहीं था। इसीलिए तो उन्होंने कहा है
‘’तू कहता कागद के लेखी,
मैं कहता
आँखिन की देखी।‘’
कबीर संत भी थे, कवि भी थे। निम्न पंक्तियों में
उनके दोनों रूपों का संगम देखें-
‘’ साधो, देखो जग बौराना।
हिंदू
कहत है राम हमारा, मुसलमान रहमाना।
आपस में
दोऊ लड़तु मरतु हैं, मरम कोई नहीं जाना॥‘’
आध्यात्मिकता से ओत-प्रोत
उनकी निम्न पंक्तियां देखें –
‘’झीनी-झीनी बीनी चदरिया।
काहे कै
ताना काहै कै भरनी, कौन तार से बीनी चरदिया।
इंड़ा-पिंगला
ताना भरनी, सुसमन तार से बीनी चदरिया।
सो चादर
सुर-नर-मुनि ओढ़िन, ओढ़ि के मैली कीनी चदरिया।
दास
कबीरा जतन से ओढ़िन, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।‘’
उपर्युक्त कथन में कबीरदास
जी का आत्मविश्वास साफ-साफ झलकता है। वे
बात को जीवन के ठोस सत्य के धरातल पर रखकर काफी कठोरता से कहने के पक्षधर थे। उनमें एक प्रकार की नैतिक ईमानदारी का अहसास
कूट-कूटकर भरा हुआ था। इसी कारण, उनके अंदर गजब का आत्मविश्वास था।
इसीलिए जब अदम्य आत्मविश्वास के साथ डंके की चोट पर वे अपनी बात कहते थे, तो हड़कंप मच जाता था। उनमें दंभ
का लेशमात्र भी नहीं था। उनका स्वभाव, उनकी प्रवृत्ति फक्कड़ाना थी। उनकी आदत अक्खड़ों जैसी थी। भगवान के सच्चे भक्तों के सामने वे निरीह-से
लगते थे। तो भेषधारियों के आगे प्रचंड रूप
में आ जाते थे।
कबीरदास में एक सच्चे युग
प्रवर्तक की दृढ़ता विद्यमान थी। उनमें वे तमाम गुण थे, जिनकी चर्चा उनके परवर्ती करते रहे हैं।
प्रेम रस से पगे वे ऐसे फकीर थे, जिनकी वाणी आज भी
उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी कल थी। वे सच्चे अर्थों में अपने युग के प्रगतिशील
पुरोधा थे। विचारों की दैन्यता उनके पास
नहीं थी। गरीब होते हुए भी वास्तविक अमीर
थे। उनके पास विचारों का धन पर्याप्त
मात्रा में मौजूद था। कबीर ने स्वयं को
भक्त कहा। जो व्यक्ति भक्त के अलावा संत
या कवि या समाज-सुधारक या क्रांतिकारी के नाम को खुद पर चस्पाँ नहीं करना चाहता था, उसी व्यक्ति को परवर्ती साहित्यकारों ने कई-कई नामों से पुकारा। यह कबीर को अभीष्ट नहीं था। उनको अभीष्ट यह था कि कि लोग उनकी रचनाओं में
प्रक्षेपित भावों को जस-का-तस ग्रहण करें तथा अपने जीवन को तदनुरूप बनाने की
चेष्टा करें ताकि ऊँच-नीच, भेद-भाव,
लोलुपता, संग्रह आदि प्रवृत्तियों का नाश हो, क्षरण हो तथा समाज में जो तमाम दूरियाँ बन गई हैं,
मनुष्य से मनुष्य के बीच की दूरियाँ वे कम हों।
मनुष्य इन भेद-भाव की भावनाओं का प्रतिकार अपने मन के भीतर करे तथा उसे
कर्म और आचरण के धरातल पर उतार कर अपनी सार्थकता सिद्ध करे।
आचार्य हजारी प्रसाद
द्विवेदी कबीर को समष्टिवादी न मानकर व्यष्टिवादी मानते थे। यहाँ कबीर को व्यष्टिवादी कहने का उनका
तात्पर्य शायद यह रहा हो कि कबीर ने प्रत्येक मनुष्य को आत्मा तथा मन को पवित्र
करने के साथ-साथ, निरंतर उद्यम करने को प्रेरित
किया।
‘’मन के हारे हार है।
मन के
जीते जीत।।‘’
इस प्रकार की उक्तियों से
वे सदैव मन को वश में करने की प्रेरणा आम आदमी को देते रहते हैं। इसी प्रकार, जब व्यक्ति अपने ‘मन’ को जीतकर
उच्च आदर्श के बिंदु पर पहुँचता है तब समाज का कल्याण होता है। समाज के इस रूप में निर्माण की कल्पना अगर कबीर
करते हैं तो उन्हें समष्टिवादी कहने में कोई बुराई नहीं।
कबीर का ध्यान भेदभाव की
ओर भी गया, लेकिन वे वहाँ पर एक आम आस्तिक भारतीय की
विचारधारा ही दे पाए। यदि वे ऐसा कर पाते, तो समाज के विस्तृत तबके को अधिकाधिक लाभ जरूर मिलता। आर्थिक विषमता भी मनुष्यों की स्वार्थवृत्ति
का परिणाम है, कबीर इसे भी समझने में सफल नहीं रहे थे। वे मानते थे कि भगवान ने जिसके लिए जितना
निश्चित किया है उसको उतना ही प्राप्त होगा।
जीवन की सुविधाएँ अच्छे
कर्मों का और असुविधाएँ बुरे कर्मों का परिणाम हैं। उनके लिए सुख-दु:ख अपने ही कर्मों का भोग था, अन्यथा बराबरी का दर्जा देने के क्रम में, उनका
ध्यान आर्थिक गैर-बराबरी पर नहीं जाता, ऐसा नहीं है।
‘’जाकौं जेता निरमया ताकौं तेता होई।
राई घटे
न तिल बढ़ै, जौ सिर कूटै कोई॥‘’
अगर उपयोग किया जाए, तो कबीर ने बहुत सारी ऐसी बातें कहीं हैं, जिनसे
समाज-सुधार में सहायता प्राप्त हो सकती है।
वे बाह्याचार के घोर विरोधी थे।
बाह्याचार से मुक्त मनुष्यता को ही वे प्रेमभक्ति का पात्र मानते थे। इन विचारों को यदि आज का आधुनिक विचारशील
मनुष्य अपने अंतर में ला सका, तो यहीं कबीर को सच्ची
श्रद्धांजलि होगी। कबीर की भक्ति ईश्वर के
दरबार में समानता और एकता की पक्षधर है। वर्तमान संदर्भों में अगर हम देंखे तो आज
भी मंदिरों में जाति के नाम पर भेदभाव बरता जाता हैं। आज भी ऐसे कई ईश्वर के दरवाजे है जहां धर्म, जाति के नाम पर भेदभाव किया जाता हैं।
लेकिन कबीरदास सभी को समान दृष्टि से देखते थे। ऐसे में आज भी कबीर के उपदेशों की जरुरत
है। कबीर ने निर्गुण निराकार राम की
आराधना कर यह सिद्ध किया कि ईश्वर निराकार है। सर्वज्ञ है। ऐसे समय में जब हमारा समाज इतना आधुनिक होते
हुए भी धर्म के मामले में इतना उलझा हुआ है।
मंदिर-मस्जिद के झगड़ों में उलझा हुआ है। कबीर के
दोहों को उभारने की जरुरत है।
‘’माला तो कर में फिरे, जीभ फिरे मुँह माहि।
मनुवाँ
तो दस दिसि फिरे, यह तो सुमिरन नाही॥
प्रस्तुत दोहे से हम समझ
समते है कि कबीरदास जी ने किस प्रकार धार्मिक आडंबरों पर चोट किया हैं। वे वास्तविक पूजा पर बल देते हैं। ऐसे में मुझे पिछ्ले दिनों हुए एक सर्वे की याद
आती है जिसमें भारतीय समाज को हद से ज्यादा धार्मिक दिखाया गया हैं।‘’ इसके बावजूद आज हमारे जीवन मूल्य टूट रहे है। हमारी मान्यतायें मूल्यों से निर्धारित नहीं हो
रही हैं। हम धार्मिक कट्टरवाद के जाल में
जकड़े जा रहे हैं। हमें आज कई जगह ऐसी
खबरें पढ़ने-देखने को मिलती है जिसमें दो धर्मों के समुदायों के बीच दीवार बनाने की
बात आती है ऐसे में कबीर स्वत: याद आते है जिसमें कबीर ने उस जमाने में इन दोनों
धर्मों को हिंदू-मुसलमान को जोड़ने की कोशिश की थी; ऐसे में
जब आज हम ज्यादा आधुनिक है तो क्या कबीरदास के विचारों की जरुरत फिर से है? मतलब हम आज भी अपने अंतर में मानवीय मूल्यों को उतार नहीं पाए हैं। वास्तव में कबीरदास ने धर्म और जीवन में कोई
भेद रहने नहीं दिया। जीवन की सात्त्विक अभिव्यक्ति ही धर्म है।
कबीर ने नव मानववाद की
स्थापना के लिए प्रयास किया। सभी धर्मों, पंथों, सभी मत-मतांतरों को खारिज कर वे एक तत्व पर जोर दे रहे थे। जिसे कुछ
विद्वान एकेश्वरवाद की संज्ञा दे रहे थे।
कुछ निर्गुणवाद। लेकिन सच मायनों में यह अनुभव पर आधारित नया ज्ञान
था। जिसे अनेक विद्वान ज्ञानमार्ग का नाम
देते हैं। इसी कारण कबीर कहते हैं:-
‘’हरि है खांड रेतु महि बिखरी, हाथी चुनि न जाई।
कहि
कबीर गुरि भली बुझाई, कीटी होई कै खाई॥‘’
अर्थात् हरि खांड की तरह
है जो संसार रुपी रेत में बिखरा हुआ, फैला हुआ मौजूद
है। अंहकार से उन्मत्त रुपी हाथी उसे नहीं
चुन सकता। कबीर का कहना है कि अपनी सहज और
सूक्ष्म शक्ति से कीट की तरह या चीटीं की तरह उस खांड को पाया जा सकता हैं। अर्थात्
ईश्वर तो सर्वत्र है। सर्वज्ञ है।
कबीरदास ने ईश्वर तत्व और
मानव प्रेम दोनों को अभिन्न माना हैं।
ईश्वर को पिता रुप, माता रुप,
मित्र के रुप में उन्होंने माना है। कबीर ने जाति प्रथा और वर्णाश्रम व्यवस्था पर चोट
किया हैं। कबीर का यह दोहा आज भी
प्रासंगिक है:-
‘’ यह जग अंधा, मैं केहि समझावौं।
घर की वस्तु नजर नहीं आवत,
दियान बारि के ढ़ूढ़त अंधा॥‘’
अर्थात् कबीर बिना वजह परेशान होने को माया मानते है और कहते हैं कि
सब आपके अंदर बसा है, घर-घर ढ़ूंढ़ने की जरुरत नहीं। यह आज के दौर में सार्थक है। कारण कि मनुष्य सत्य की तलाश में जगह-जगह भटक
रहा है। वह सत्य उसके अंदर ही है।
इसी कारण आज के दौर में कबीरदास का साहित्य सर्वाधिक
प्रासंगिक है। यह साहित्य प्रत्येक चुनौती के मौके
पर बहस के अखाड़े में मुस्तैद खड़ा रहता हैं।
इस प्रकार अगर हम उपरोक्त तथ्यों पर गौर फरमाए तो पाते है कि कबीर आज कितने
प्रासंगिक हैं। यह उनकी बानियों, दोहों से स्पष्ट झलकता है। चूँकि कबीर ने जिन प्रथाओं पर चोट किया था वो
आज भी जिंदा है ऐसे में उनकी आवश्यकता फिर महसूस की जा सकती है। उन कोढ़ों को दूर करने के लिए फिर उनकी जरुरत
है।
निष्कर्षत:
हम समझ सकते है कि कबीर के उपदेशों को आज फिर से उभारने की जरुरत हैं। समाज में समत्व की भावना लाने की जरुरत
है। छूआ-छूत, उँच-नीच की भावना को एक शिक्षित समाज का गुण-तत्त्व नहीं माना जा सकता। इस सामाजिक बुराई को हटाने की जरुरत है। धार्मिक बुराई, यथा
तीर्थ-स्थान, कुर्बानी, श्राद्ध, मूर्तिपूजा, मुस्लिम धर्म में कुर्बानी, हलाल, सुन्नत इत्यादि को वे गलत मानते थे। यदि वास्तव में साम्यवाद लाना है तो कबीर की
दृष्टि रखनी होगी। साथ ही धार्मिक तटस्थता
भी रखनी होगी। कबीर की दृष्टि तो मार्क्स
से भी पुरानी थी। उनकी यह समदर्शिता ही
थी। इसी कारण, वे धन
जोड़ने को गलत मानते थे। वे कर्मवाद के प्रबल समर्थक थे। बिना
कर्म किए पाप धूलता नहीं। इस प्रकार
सर्व-धर्म समभाव, विश्व में सभी के प्रति समदृष्टी, अपरिग्रह, कर्मयोग, तथा दया
आदि मानवीय गुणों पर उन्होंने बल दिया। इसी कारण वे मानवतावादी कवि माने जाते
है। और इन्हीं कारणों से वे सर्वाधिक
प्रासंगिक है और रहेंगे।
संदर्भ :
·
इग्नू
स्नातकोत्तर अध्ययन सामग्री
·
सेमिनार
से साभार, अनुवाद : प्रवीण प्रभाकर, दैनिक हिंदुस्तान, 02 मई, 2015
·
इंटरनेट
एवं विभिन्न अध्ययन सामग्री
मैं, साकेत कुमार सहाय, यह प्रमाणित करता हूं कि मेरी यह रचना
मौलिक व अप्रकाशित है। ‘’
संपर्क
:
डॉ. साकेत सहाय
वरिष्ठ प्रबंधक(राजभाषा),
ओरियंटल बैंक ऑफ कॉमर्स, प्लॉट नं. 05, सैक्टर-32,
कॉरपोरेट कार्यालय, गुरूग्राम
संपर्क : 0124-4126142; 08800556043
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