जब अधिकारी के कहने पर नेहरुजी ने संदेश हिंदी में पढ़ा ...... वर्ष 1962 की बात है , भारत-चीन युद्ध चल रहा था। चीन ने पंचशील समझौते का उल्लंघन कर भारत पर अचानक आक्रमण कर दिया था। युद्ध को लेकर भारत की कोई तैयारी नहीं थी। अत: भारत कमजोर पड़ता जा रहा था। चारों ओर निराशा का माहौल था। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने देशवासियों को निराशा से उबारने के लिए आकाशवाणी से राष्ट्र के नाम संदेश देना तय किया। उस समय आकाशवाणी के प्रभारी अधिकारी मोहन सिंह सेंगर थे। वे प्रधानमंत्री के आवास पर रिकॉर्डिग के लिए गए। कार्यक्रम के अनुसार प्रधानमंत्री को संदेश का मूल पहले अंग्रेजी में पढ़ना था , फिर उसका हिंदी अनुवाद पढ़ना था। सेंगर साहब को यह नहीं जंचा कि अंग्रेजी को अहमियत देकर उसे मूल पाठ के रूप में पढ़ा जाए और राष्ट्रभाषा हिंदी को अनुवाद की भाषा बनाकर उसके साथ सौतेला व्यवहार किया जाए। वे नेहरूजी से बोले- सर! आपातकाल के इस समय में भारत का प्रधानमंत्री हिंदी संदेश अनुवाद के रूप में पढ़े , यह ठीक नहीं लगता। ऐसे समय में आप यदि मूल हिंदी में ही बोलें तो प्रभावी रहेगा।
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वर्तमान परिप्रेक्ष्य में संत कबीर की प्रासंगिकता
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वर्तमान परिप्रेक्ष्य में संत कबीर की प्रासंगिकता संत साहित्य में अपभ्रंश व सिद्ध , जन साहित्य , नाथ पंथ और वैष्णव भक्ति आंदोलनों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। संत नामदेव , गुरूनानक महाराज , दादूदयाल , सुंदरदास , रज्जबदास , मलूकदास , सहजोबाई इत्यादि का संत साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। परंतु इसमें कोई दो राय नहीं कि संत धारा साहित्य में कबीरदास अग्रिम अधिकारी रहे हैं। हिंदी संत काव्य की दृढ़ नीव रखने वाले कबीरदास हुए हैं। कबीरदास के साहित्य का मुख्य उद्देश्य कर्मकांड की विसंगतियों को दूर कर समतामूलक समाज की स्थापना करना रहा। कबीरदास एक संतकवि होने के साथ ही एक समाज सुधारक की भूमिका में भी थे और जातिविहीन समाज व नारी अधिकारों के सचेतक थे। संत साहित्य का प्राण तत्त्व है-लोक धर्म। सत रुपी परम तत्व का साक्षात्कार कर लेने वाले व्यक्ति को संत कहा जाता है। डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल ने संत का संबंध ‘ शांत ’ से माना है और इसका अर्थ निरूपित किया है – निवृत्ति मार्गी या वैरागी। सामान्यत: सदाचार के लक्षणों से युक्त व्यक्ति को संत कहा जाता है। जो आत्मोन्नति एवं लोकमंगल में