हिंदी का प्रश्न
बार-बार मन में यह प्रश्न कौंधता है कि देश की भाषा समस्या का
कारण क्या है ? क्या यह समस्या एक विशेष भाषा से
राजनैतिक दुराव की देन है या अंग्रेजीवादी मानसिकतावादी से एक अतिरिक्त लगाव की
उपज। दोनों ही विचार मन में आते है। लेकिन इस स्थिति का जिम्मेवार कौन है ? जबकि संविधान सभा ने सर्वसम्मति से हिन्दी को राजभाषा घोषित किया
था। हमारे जन प्रतिनिधियों ने भी हिन्दी की महत्ता एवं गुणों को स्वीकारते हुए
वर्ष 1947 में ही इसे संघ की
राजभाषा के रुप में स्वीकार किया था। क्या
हमारी राजभाषा भी सरकार के अन्य चिन्हों,
प्रतीकों की तरह प्रतीकवाद की शिकार हो गई ?
हम सभी इसका दोष आसानी से राजनैतिक दलों या सरकार को देते
है। परंतु, क्या हमने अपने अंदर कभी झाँकने की
कोशिश की है ? कि हम सभी अपने कर्तव्य
पालन हेतु कितने तत्पर है? हिन्दी महज
भाषा नही वरन् राष्ट्रवाद की प्रतीक है।
फिर क्यों हम अपने तथाकथित राजनैतिक, व्यक्तिगत हितों के तले राष्ट्रनायकों
की वास्तविक इच्छा को रौंद रहे है। और – तो
- और, जिन राजनैतिक वजहों से हिंदी वास्तविक सत्ता को प्राप्त नहीं कर पाई तो वहीं
दूसरी भारतीय भाषाएं भी इसी मानसिकता की शिकार हो अपनी बदहाली पर आंसू बहा रही
है। और इसका फायदा विदेशी भाषा के पोषक
उठा रहे है।
दिक्कत तो इस बात की है कि भारतवर्ष में अंग्रेजी की 250
वर्षों की प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष गुलामी के चलते हमने इसे जितनी इज्जत,
मान-सम्मान बख्शी उसके बाद भी यह भाषा जनभाषा तो दूर भारतवर्ष की 2 % से ज्यादा
लोगों तक अपनी पहुंच बना पाने में असफल रही है।
फिर भी हम सब ‘’ घर की
मुर्गी दाल बराबर ‘’ मानसिकता की शिकार होकर अंग्रेजीवादी मानसिकता को सींच
रहे है और इस वजह से हमारी हालत ‘’ धोबी का कुत्ता घर का न घाट ’’ का होकर रह गई है। इसी सोच की वजह से हमारी शिक्षा व्यवस्था भी दिन-प्रतिदिन
तथ्यहीन व नकलवादी बनती जा रही है। अपनी भाषा से दूर रहने का ही कारण है कि इतनी विशाल जनसंख्या वाला देश होने के बावजूद
आज भी हमारा देश सिर्फ चंद नोबेल पुरस्कार ही हासिल कर पाया है। कारण कि निज भाषा
में शिक्षण पद्धति का विकास नहीं होने के कारण ही आज भी हमारी भाषा तकनीक व
विज्ञान की भाषा बनने से कोसों दूर है।
हालांकि यह सर्वज्ञात तथ्य है कि हिन्दी में वे सभी गुण है जो
किसी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने की पात्रता रखते है। भारत की दूसरी अन्य
भाषाओं की तरह हिन्दी का जन्म भी संस्कृत से हुआ है तो वहीं यह उर्दू के भी करीब
है। यानि देश की गंगा-जमुनी तहजीब की भाषा हिन्दी ही है। संपूर्ण भारत में एक साथ बोली व समझी जाने वाली एकमात्र भाषा
हिन्दी है। हिंदी देश को एक साथ
सांस्कृतिक, वैचारिक,
आध्यात्मिक रुप से जोड़ती है। हिंदी के बारे में सबसे प्रमुख तथ्य यह है
कि इसने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान
स्वतंत्रता सेनानियों एवं राष्ट्र को एकीकृत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
जिससे हमारी आजकल की पीढ़ी कम परिचित है। तकनीकी तौर पर भी देखें तो हिंदी भाषा व
इसकी लिपि पूर्णत: वैज्ञानिक है। आज
विदेशी विशेषज्ञ भी मानते है कि यह भाषा पूर्णत वैज्ञानिक है। कारण कि इसमें जो बोलते है वही लिखते है।
फिर भी, इसे
देश का दुर्भाग्य कहिए कि इतना कुछ होते हुए भी हिन्दी अपनी कोई पुख्ता पहचान नही
बना पाई। आज भी इसे लोग अंग्रेजी से कमतर
आंकते है। विचारक इसके पीछे जहाँ देश की
अन्य भाषाओं का हिन्दी के कारण अपनी पहचान खोने का डर बताते है तो कुछ वैचारिक
गुलामी को। मतलब भले ही हम अपना कार्य एक
विदेशी भाषा में करें लेकिन हिन्दी में न करें।
यह तर्क भाषायी गुलामी का परिचायक नही तो और क्या है ?
इस भाषायी गुलामी के पक्ष में हजार तर्क दिए जाते है। कुछ हद तक तो यह तर्क ठीक लगता है कि जितनी
ज्यादा भाषा का ज्ञान हो उतना ही अच्छा है।
लेकिन यह तर्क वही तक ठीक है जहाँ तक यह ज्ञान से संबंद्ध रखता है। लेकिन, इसका मतलब यह नही कि हम अपनी भाषा को
दरिद्र माने। हिंदी को दरिद्र भाषा मानने
से काम नहीं चलेगा बल्कि जरुरत है इसमें छुपे ज्ञान को खंगालने की।
हिन्दी जहाँ एक तरफ समृद्ध भाषा है वही यह राष्ट्रीय पहचान की
भी भाषा है। क्या अंग्रेजी में यह सब गुण
है ? संविधान
ने हिन्दी को वह सब कुछ दिया जिसकी वह अधिकारिणी थी। दोष नीति का नही हमारी नीयत का है। संविधान लागू होने के बाद पंद्रह साल का समय
भाषा परिवर्तन के लिए रखा गया था और वह समय केवल केंद्र सरकार की भाषा के लिए ही
नहीं बल्कि भारत संघ के सभी राज्यों के लिए था ताकि उसी अवधि में सभी राज्य सरकारें
अपने-अपने राज्यों में अपनी राजभाषा निर्धारित कर लेंगी एवं उन्हें ऐसी सशक्त बना
लेंगी कि उनके माध्यम से समस्त सरकारी काम काज किए जा सकेंगें। राज्य में स्थित
शिक्षण संस्थाएं अपनी राजकीय भाषा के माध्यम से ही शिक्षा देंगी। यह निर्णय वर्ष 1949 में ही किया गया था। राज्यों ने अपनी-अपनी राजभाषा नीति जरुर बनाई।
परंतु इस निर्णय को उतनी मुस्तैदी से लागू करने का प्रयास नहीं किया जितना कि
आवश्यक था। उन्होंने तत्कालीन समस्याओं के आगे भाषा के महत्व को नहीं समझा।
कालांतर में, राज्यों
ने राजभाषा में उचित कार्यकलाप के लिए अपने यहां भाषा विभाग की स्थापना की और
कार्यालयी भाषा की शिक्षा देनी प्रारंभ की।
राज्य सरकारों ने अपनी भाषाओं को संवर्धित तो जरुर किया लेकिन उस अनुपात में नहीं जिस अनुपात में करना
था। जिस कारण राज्य के भाषाओं की वर्तमान स्थिति राज्य के अंदर वही है जो केंद्र
में हिन्दी की वर्तमान स्थिति है या यूँ कहें कि उससे भी बुरी है। अंग्रेजी न चाहते हुए उचित नीयत के अभाव में
चलती रही। इस कारण हिन्दी न तो पूरी तरह
से राजभाषा बन पाई और न राज्यों के बीच की संपर्क भाषा ही। हालांकि थोड़े-बहुत प्रतीकात्मक बदलाव जरुर नज़र
आते है।
हिंदी के प्रश्न को संविधान में अनंत काल तक के लिए टालने का
फ़ैसला न तो जनता द्वारा किया गया है और न ही किसी समिति द्वारा सुझाया गया था। आज
तक जितनी भी समितियां, आयोग
गठित की गई है किसी ने भी हिंदी के प्रश्न को समय सीमा (पंद्रह साल) से परे रखने
की सिफ़ारिश नहीं की है। राजभाषा आयोग, विश्व विद्यालय अनुदान आयोग, केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड, सभी ने हिंदी व क्षेत्रीय भाषाओं में ही
शिक्षा-दीक्षा देने की सिफ़ारिश की है। फिर संविधान में हिंदी को अनिश्चित काल के
लिए टालने की बात कहां से आई?
यदि हिंदी को वास्तविक रूप में कामकाज की भाषा बनाना है तो देश
में राजभाषा कार्यान्वयन को कड़ाई से लागू करना होगा। और यह कार्य केवल एक व्यक्ति या एक खास संगठन
का नही बल्कि सभी का है। उच्च शिक्षा में
हिन्दी को अपनाने का प्रयास करना होगा।
साथ में, पुन:
त्रिभाषा नीति के कार्यान्वयन पर जोर देना
होगा। त्रिभाषा सूत्र के कार्यान्वयन की
कठिनाइयों पर शिक्षा आयोग (1964-66) ने विस्तार से विचार किया है। जिसमें आयोग ने कार्यान्वयन की
कठिनाइयों का उल्लेख करते हुए कहा था गलत योजना बनाने और आधे दिल से सूत्र को
कार्यान्वित करने से स्थिति और बिगड़ गई है।
सरकारी प्रयास आज भी जस-की-तस है।
जरुरत है गंभीर कदम उठाने की।
अंग्रेजी को अनिश्चित काल तक, भारत की सहचरी राजभाषा के रूप में
स्वीकार किए जाने के कारण यह बात अब और आवश्यक हो गई है। ऐसी परिस्थिति में, कार्यालयों में हिंदी को
प्रचलित करने तथा स्टाफ सदस्यों को सक्षम
बनाने के लिए सतत् कार्यनिष्ठा के
साथ शिक्षण-प्रशिक्षण का हर संभव प्रयास
करना होगा। दोष न राजभाषा नीति में है और
न संविधान में बल्कि खोट तो हमारे नीयत में है।
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