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1411

                                                      1411 आजकल अखबारों में, टी.वी. विज्ञापनों में, बाघों को बचाने की बड़ी मुहिम सुनाई पड़ती है। ऐसा क्यों होता है कि हम नींद से तभी जागते है जब पानी सर से ऊपर गुजर जाता है। बात केवल बाघ की ही नहीं है। ऐसा हमारे देश के अधिकांश चीजों में होता है। ऐसा लगता है भारतीय प्रतीकवाद में ज्यादा विश्वास करते है। तभी तो हमारे अधिकांश राष्ट्रचिन्ह, प्रतीकों का ऐसा हश्र हो रहा है। आज हम बाघ के विलुप्त होने पर हो-हल्ला मचाए हुए है और कल राष्ट्रीय पक्षी मोर के विलुप्त होने पर शोक मनाएंगे। और-तो-और, हमारे राष्ट्रचिन्ह का वास्तविक स्थल भी आज क्षरण होने के कगार पर है। लेकिन हम सभी दो-चार ब्यानबाजी के अलावा करते ही क्या है ? ऐसा हम अपने सामाजिक, राजनैतिक जीवन के प्रत्येक अंश में देख सकते है। हमारे राष्ट्रीय खेल हॉकी की दुर्गति का ही उदाहरण लें ले। पिछ्ले करीब बीस वर्षों से राष्ट्रीय खेल हॉकी के पतन की बात सुनते आ रहे है लेकिन आज भी हॉकी वहीं की वहीं खड़ी है। राजभाषा हिंदी भी इसी प्रतीकवाद के नियति का शिकार हो रही है। जिसे हमारे संविधान ने तो उचित पद का अधि