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हिन्दी का प्रश्न

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हिन्दी का प्रश्न                    बार-बार मन में यह प्रश्न कौंधता है कि देश की भाषा समस्या का कारण क्या है ? क्या यह समस्या एक विशेष भाषा से राजनैतिक दुराव की देन है या अंग्रेजीवादी मानसिकतावादी से एक अतिरिक्त लगाव की उपज। दोनों ही विचार मन में आते है। लेकिन इस स्थिति का जिम्मेवार कौन है। जबकि संविधान सभा ने सर्वसम्मति से हिन्दी को राजभाषा घोषित किया था। हमारे जन प्रतिनि‍धियों ने भी हिन्दी की महत्ता एवं गुणों को स्वीकारते हुए वर्ष 1947 में ही इसे संघ की राजभाषा के रुप में स्वीकार किया था। शायद राजभाषा हिन्दी भी भारत सरकार के दूसरे चिन्हों एवं प्रतीकों की तरह ही प्रतीकवाद की शिकार हो गई। दोष तो हम आसानी से राजनैतिक दलों या सरकार को दे सकते है। लेकिन क्या कभी हमने अपने अंदर झाँकने की कोशिश की है? कि हम इसके लिए कितने जिम्मेवार है। कारण कि हिन्दी केवल एक भाषा नही है हमारे राष्ट्रवाद की प्रतीक भी है। हिन्दी के साथ-साथ दूसरी भारतीय भाषाएं भी इसी मानसिकता की शिकार हो रही है। हिन्दी में वह सब वह गुण है जो किसी भी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने की पात्रता है। भारत की दूसरी अन्य भाषाओ

पाठकों से प्रश्न इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और हिंदी के संबंधों पर

                                                              

एक अपील : राजभाषा हिंदी से संबंधित

मैं ब्लॉगर, साकेत कुमार सहाय, संप्रति हिन्दी विषय में शोधरत हूँ। मेरे शोध प्रबंध का विषय है भारतवर्ष में इलेक्ट्रानिक मीडिया और हिन्दी :1990 के दशक के बाद। मान्यवर मेरा शोध प्रबंध हिन्दी से जुड़ा हुआ है जो कि केवल राजभाषा ही नहीं बल्कि हमारी राष्ट्रभाषा व संपर्क भाषा भी है। हिन्दी सदियों से इस विशाल देश को सांस्कृतिक, राजनैतिक, सामाजिक, भाषायी व धार्मिक रुप से जोड़ती आई है। इसने देशवासियों को राष्ट्रभाषा के अभाव की कमी से मुक्ति प्रदान की है। जिस प्रकार आजादी की लड़ाई में हिन्दी ने संपूर्ण देश के स्वतंत्रता सेनानियों को एक-दूसरे से जोड़ा और आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उसी प्रकार आधुनिक राष्ट्र के निर्माण में भी हिन्दी ने देश वासियों को कश्मीर से कन्याकुमारी तक तथा पोरबंदर से लेकर सिल्चर तक जोड़ा है। मित्रों, हिन्दी को लोकप्रिय बनाने तथा जन-जन तक इसे पहुँचाने में इलेक्ट्रानिक मीडिया की भूमिका से शायद ही किसी को इंकार हो। विशेषकर 1990 के दशक के बाद। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के चैनलों ने हिन्दी भाषा व संस्कृति को व्यापक रुप से प्रभावित किया है। इन्ही तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए मैं

1411

                                                      1411 आजकल अखबारों में, टी.वी. विज्ञापनों में, बाघों को बचाने की बड़ी मुहिम सुनाई पड़ती है। ऐसा क्यों होता है कि हम नींद से तभी जागते है जब पानी सर से ऊपर गुजर जाता है। बात केवल बाघ की ही नहीं है। ऐसा हमारे देश के अधिकांश चीजों में होता है। ऐसा लगता है भारतीय प्रतीकवाद में ज्यादा विश्वास करते है। तभी तो हमारे अधिकांश राष्ट्रचिन्ह, प्रतीकों का ऐसा हश्र हो रहा है। आज हम बाघ के विलुप्त होने पर हो-हल्ला मचाए हुए है और कल राष्ट्रीय पक्षी मोर के विलुप्त होने पर शोक मनाएंगे। और-तो-और, हमारे राष्ट्रचिन्ह का वास्तविक स्थल भी आज क्षरण होने के कगार पर है। लेकिन हम सभी दो-चार ब्यानबाजी के अलावा करते ही क्या है ? ऐसा हम अपने सामाजिक, राजनैतिक जीवन के प्रत्येक अंश में देख सकते है। हमारे राष्ट्रीय खेल हॉकी की दुर्गति का ही उदाहरण लें ले। पिछ्ले करीब बीस वर्षों से राष्ट्रीय खेल हॉकी के पतन की बात सुनते आ रहे है लेकिन आज भी हॉकी वहीं की वहीं खड़ी है। राजभाषा हिंदी भी इसी प्रतीकवाद के नियति का शिकार हो रही है। जिसे हमारे संविधान ने तो उचित पद का अधि